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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.जड़ भरत व राजा रहूगण की भेंट
एक रहूगण नाम के राजा थे। वे कपिल मुनि के सत्संग में ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए पालकी में बैठकर जा रहे थे। उनके चार कहार थे जो रोज पालकी ढोते थे। लेकिन उस दिन उन चार में से तीन ही आये थे। एक कहार पता नहीं उस दिन काम छोड़कर कहाँ चला गया था। उन तीनों ने देखा कि एक हृष्ट-पुष्ट आदमी अच्छा संड-मुसंड वहाँ पर बैठा हुआ है। वे बोले - उठो पालकी ढोओ। तो ये जड़भरत जी उठकर पालकी ढोने में लग गये। अरे भाई, पालकी ढोना भी एक प्रकार की कला होती है। किसी को काफी सामान हाथ में देकर कहें कि चलो तो चलना आता है क्या? अब उनको पालकी ढोने का अभ्यास तो था नहीं। वे अपनी मौज में कीड़े मकोड़ों को बचाते हुए चल रहे थे। पालकी हिलने लगी। राजा को गुस्सा आया। वे बोले, ”तुमको पालकी ढोना भी नहीं आता?“ फिर राजा को लगा कि यह सांसर्गिक रोग है। इसके संसर्ग से दूसरे लोग भी ठीक तरह से काम नहीं करेंगे। इसलिये इसे अवश्य डाँटना चाहिये। जब राजा ने डाँटा तो कहार कहने लगे - महाराज, हमको तो अच्छी तरह से पालकी ढोना आता है, लेकिन यह जो नया आदमी काम में लगाया गया है वह उलटा-सीधा हिला रहा है। राजा ने कहा, उसको ठीक करो और सीधे चलो। परन्तु वे कुछ नहीं सुनते, उन्हें जैसा चलना आता था वैसे ही चलते जा रहे थे, तो फिर से पालकी हिलने लगी। अब राजा ने सोचा यदि मैं इसे दण्ड नहीं दूँगा तो इन लोगों को लगेगा कि चाहे जैसे काम करें तो भी चल जाएगा। इसलिए वे डाँटने लगे। और फिर परदा खोलकर देखने लगे कि वह नया आदमी कौन है! और जब उन्होंने देखा कि वह तो अच्छा हट्टा-कट्टा है, तो कहने लगे -
तुम मेरा अपमान करते हो? मेरी बात नहीं मानते? मैं दण्डधारी राजा हूँ। अब तुमको दण्ड दूँगा। दिखते तो बड़े मोटे-ताजे हो, लेकिन लगता है बहुत थक गये हो। खाते-पीते तो अच्छी तरह से हो ही। बड़ा कष्ट हो रहा है तुम्हें? जब भरत जी ने ऐसी बात सुनी तो उन्हें कोई दुःख तो हुआ नहीं, लेकिन उन्होंने राजा रहूगण को खरी-खरी बात सुना दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.10.7
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