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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.वसुदेवजी को नारद जी के द्वारा ज्ञानोपदेश
इस एकादश स्कन्ध में अब ज्ञान की चर्चा प्रारम्भ होती है। अन्य सारे ऋषि मुनि तो वन में चले गये, लेकिन नारद जी बार-बार भगवान के पास आते रहते थे। वे भगवान श्रीकृष्ण से अत्यधिक प्रेम करने वाले हैं। उन्हें बारं-बार भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करने की इच्छा होती रहती थी, अतः वे प्रायः द्वारका आते रहते थे। एक बार, वहाँ पहुँच कर वे वसुदेव जी के घर जाते हैं। इसलिए कि नारद जी सोचते हैं कि वसुदेव जी भगवान से प्यार तो करते हैं, परन्तु उन्हें अपना बच्चा समझ कर प्यार करते हैं। अब यदि ये भगवान को सिर्फ बेटा–बेटा कहते रह जायेंगे, तो बात अधूरी ही रह जाएगी। उसमें पूर्णता नहीं है। अतः अब इन्हें भगवान के स्वरूप का - भगवत तत्त्व का ज्ञान प्राप्त हो जाना चाहिए। अब उसका समय आ गया है। ‘देवर्षि’ वसुदेवो गृहागतम्’ नारद जी को घर आए देखकर वसुदेव जी ने उनका स्वागत किया। फिर उनकी पूजा आदि कर लेने के बाद, वे नारद जी से कहते हैं- भगवान! आप जैसे भगवन्मय भगवत प्रेमी जन हमारे घर में प्रवेश करें यह हमारे ऊपर बड़ी कृपा है। आप तो ‘साधवो दीन वत्सलाः’[2] दीन वत्सल हैं। यद्यपि मैं तो इतने से ही कृतकृत्य हूँ। तथापि मेरे मन में बहुत बार ज्ञान प्राप्ति की इच्छा होती है, सत्य को जानने की जिज्ञासा होती है। सभी लोग श्रीकृष्ण को परमात्मा कहते हैं लेकिन जब भी मैं उनसे ज्ञान की बात पूछने जाता हूँ, जो वे मेरे ही पैर छूकर कहते हैं- आप तो मेरे पिता हैं। फिर वे मुझसे ही सीखने की बात करने लग जाते हैं। अतः उनसे तो मैं ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, मेरे मन में भी, ‘यह मेरा बेटा है’, ऐसा भाव आता ही रहता है। (पता नहीं माता देवहुति ने अपने ही पुत्र कपिल मुनि से कैसे ज्ञान प्राप्त कर लिया था। और तो ऐसा कोई दीखता नहीं।) इसलिए मैं आप से उन साधनों को जानना चाहता हूँ जिनके श्रवण मात्र से ही मनुष्य सर्वतः भयावह इस भवसागर से मुक्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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