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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
13.संन्यासाश्रम
अगले अध्याय में संन्यास धर्म का वर्णन किया गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ इन तीनों आश्रमों से यह संन्यास आश्रम बड़ा कठिन है। मन में जब प्रबल वैराग्य उत्पन्न हो जाए, तब संन्यास ले लेना चाहिए और संन्यास लेने के बाद एक गाँव में एक रात से ज्यादा नहीं रहना चाहिए। किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। ‘एक एव चरेत् भिक्षुः’ अकेले भ्रमण करना चाहिए। ‘आत्माराम’ और आत्मा में रमण करते हुए, ‘अनपाश्रयः’ अन्य किसी के ऊपर आश्रित न होकर भगवान का ही आश्रय ग्रहण करें।
संन्यासी के लिए दूसरा कोई आश्रय नहीं है और जीवन का कोई अन्य बड़ा लक्ष्य भी नहीं है। बस, वह तो भगवान नारायण में मन लगा कर शान्त रहे। सारे विश्व को आत्मस्वरूप देखे। इस बोध में दृढ़ निष्ठा प्राप्त कर ले कि बन्धन-मोक्ष आदि जितनी भी द्वैत की कल्पनाएँ, जो अलग-अलग प्रकार से स्फुरित होती रहती है, वे सब-की-सब मिथ्या है। अब देखो, ऐसा हो तो वह क्यों जीता रहे? किस प्रयोजन से जीता रहे? ‘कालं परं प्रतीक्षेत’[2]। बस, देह गिरने की प्रतीक्षा करता रहे। जब उसका काल आएगा तब देह गिर जाएगा और छुट्टी हो जायेगी। न ज्यादा जीना है, न जल्दी मरना है।
अर्थात न तो ज्यादा जीने की इच्छा करे, न ही मरने की इच्छा करे। देह रहे तो भी ठीक है, न रहे तो भी ठीक है, उसके रहने या न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता। असत् शास्त्रों से दूर रहे। संन्यास लेने के बाद नया व्यापार प्रारंभ नहीं करें और न ही चुनाव लड़ने का या नौकरी करने का विचार करे। किसी प्रकार का वाद-विवाद न करे, तर्क-वितर्क न करे। किसी का पक्ष न ले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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