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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
14.नवम प्रश्न - भिन्न-भिन्न युगों में भगवत प्राप्ति के साधन
अब आता है अन्तिम प्रश्न। राजा निमि कहते हैं- अब आप कृपा कर के यह बताइए कि सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग में भगवान की-परमात्मा की अभिव्यक्ति किस-किस प्रकार से होती है? प्रत्येक युग में वे किस रूप में प्रकट होते हैं, उनका वर्ण क्या होता है और उनकी प्राप्ति के साधन क्या होते हैं? तब उनकी उपासना किस प्रकार करनी चाहिए? इसका उत्तर देते हुए नवें योगीश्वर करभाजन जी कहते हैं- सत्ययुग में (कृतयुग में) भगवान का श्वेत वर्ण होता है। वे गोरे होते हैं। तब तप व ध्यान के द्वारा भगवान की आराधना की जाती है। ‘त्रेतायां रक्तवर्णः असौ’ त्रेतायुग में भगवान का रक्तवर्ण (लालवर्ण) होता है। त्रेतायुग में यज्ञ-यागादि के द्वारा भगवान की आराधना होती है। इसमें यज्ञ विशेष साधन होता है। द्वापरयुग में भगवान श्याम वर्ण के होते हैं और तब वे पीताम्बर धारण करते हैं। द्वापर में उनकी प्राप्ति का साधन होता है- पूजा। पूजा के द्वारा उनकी सेवा, आराधना, उपासना की जाती है। वही मोक्ष का साधन बनती है। कलियुग में भगवान का कृष्णवर्ण होता है। इस युग में भगवान का नाम लेने मात्र से ही वे अति प्रसन्न होते हैं। अतः कलियुग में उनकी प्राप्ति का साधन होता है नाम संकीर्तन। यहाँ पर करभाजन योगीश्वर ने एक बड़ी बात कही है। कहते हैं- सत्य आदि अन्य युगों के लोग भी कलियुग के लोगों से ईर्ष्या करते हैं, उनके भाग्य की सराहना करते हैं कि ये बड़े अच्छे युग में उत्पन्न हुए हैं। इस युग में बहुत सारे भगवद्भक्त उत्पन्न होते हैं और भगवन्नाम संकीर्तन मात्र से इनकी सद्गति हो जाती है। कलियुग की ऐसी विलक्षण बात यहाँ बताई गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.5.19
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