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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
23.सिद्धियों का निरूपण
आगे उद्धव जी भगवान से पूछते हैं, ”मुमुक्षु को आपका ध्यान किस प्रकार करना चाहिए?“ इसका उत्तर हम दूसरे स्कन्ध में देख चुके हैं। जितासन, जितश्वास, जितेन्द्रिय और जितसंग होकर भगवान के विराट् रूप का ध्यान करें। विराट रूप का ध्यान न कर सकें, तो मन में भगवान की किसी मूर्ति का ध्यान करें। फिर कहा कि साधक जब जितश्वास, जितेन्द्रिय होकर धारणा करने लग जाता है, तब उसे अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होने लग जाती हैं। देखो, जब किसी काम को बिल्कुल एकाग्रचित्त होकर करने लग जाते हैं, तो उसमें सिद्धि प्राप्त होती है। कोई जब किसी विशेष कर्म में कुशल हो जाता है तो उसकी प्रसिद्धि भी हो जाती है। लोग प्रणाम करने लगते हैं, पूजा करने लग जाते हैं। यह सब सिद्धियों का ही प्रताप है। केवल अणिमा, महिमा, लघिमा आदि ही सिद्धियाँ होती हों ऐसी बात नहीं है। ये भी सिद्धियाँ हैं, परन्तु ये सब मन को विचलित करने वाली होती हैं। इसलिए, कोई निन्दा करे तो डरने की बात नहीं है, परन्तु यदि कोई तारीफ करने लग जाये, तो सचेत हो जाने की आवश्यकता है, क्योंकि तारीफ को, नमस्कार को पचाना बड़ा कठिन होता है। ऐसी सिद्धियों से डरना चाहिए, उनसे सतर्क रहना चाहिए। भगवान कहते हैं, ऐसी सिद्धियों की प्राप्ति को श्रेष्ठ नहीं समझना चाहिए। ये सिद्धियाँ मिल भी जायें तो टिकती नहीं हैं। तो फिर वास्तविक, श्रेष्ठ सिद्धि क्या है?
बोले, ऐसी सिद्धि प्राप्त करो जिसके पश्चात् कोई कामना ही नहीं रह जाये। देखो, कोई वस्तु मिल जाए, कोई सिद्धि प्राप्त हो जाये, तो उससे हमारी सारी इच्छाएँ निवृत्त नहीं होतीं, उसके बाद भी मन में अतृप्ति की भावना बनी रहती है। परमानन्द की प्राप्ति तो केवल अपने स्वरूप में स्थित होने पर ही होती है। तब सारी कामनाएँ समाप्त हो जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.15.17
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