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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
8.वर्णाश्रम-धर्म
अब ‘वर्ण’ तथा ‘आश्रम’ की बात आती है। ‘आश्रम’ का अर्थ क्या होता है? प्रत्येक व्यक्ति जीवन में अलग-अलग अवस्थाओं से गुजरता है। जैसे, सर्वप्रथम विद्यार्थी जीवन प्रारम्भ होता है। जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहते हैं। मनुष्य जीवन की यह पहली अवस्था है। ब्रह्मचर्य आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने के बाद व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। तब उसका वैवाहिक जीवन प्रारम्भ होता है। यह उसके जीवन की दूसरी अवस्थ है। इसमें जीवन के कर्तव्यों को निभाकर उसके पश्चात् आत्म-कल्याण के मार्ग में लग जाना चाहिए। अर्थात कर्म के मार्ग से निवृत्त होकर तत्पश्चात् ज्ञान के मार्ग पर चलना चाहिए। ब्रह्मचर्य आश्रम है - विद्यार्थी जीवन। इसमें पहले प्रवृत्ति-निवृत्ति इन दोनों को समझ लेना चाहिए। फिर अपने संस्कारों की प्रबलता के अनुसार कर्म मार्ग में या ज्ञान मार्ग में प्रवृत्त होना चाहिए। यानी पहेल प्रवृत्ति-निवृत्ति का ज्ञान, उसके बाद गृहस्थाश्रम में - कर्म मार्ग में प्रवृत्ति और फिर वानप्रस्थ आश्रम में निवृत्ति मार्ग की तैयारी और अन्ततः संन्यास में निवृत्ति ही होनी चाहिए। प्रत्येक आश्रम के कर्तव्य भी विशेष प्रकार के होते हैं। जैसे, ब्रह्मचर्य आश्रम (विद्यार्थी जीवन) के कर्तव्य हैं विद्याध्ययन तथ गुरु सेवा। फिर गृहस्थ जीवन में प्रवेश हो जाने पर उसमें अन्य प्रकार के कर्तव्य निभाने पड़ते हैं। इसमें अपने सभी करणीय कर्मों को भगवान को समर्पित करने का विधान है। उसके बाद जब वह वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट हो तो उसे तप, त्याग आदि का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक आश्रम के कर्तव्य विशिष्ट होते हैं, भिन्न-भिन्न होते हैं लेकिन चाहे कोई ब्रह्मचर्य आश्रम में हो या गृहस्थाश्रम में, वानप्रस्थ आश्रम में हो, या फिर संन्यासाश्रम में, सभी आश्रमों में उसे सद्गुणों का पालन तो करना ही पड़ता है। देखो, आश्रम के अनुरूप कर्तव्य अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन सद्गुण अलग-अलग नहीं होते। जैसे, जब कहा जाता है कि ब्रह्मचर्य अवस्था में बहुत ईमानदारी से, प्रमाणिकता पूर्वक पढ़ाई करनी चाहिए तो क्या गृहस्थाश्रम में बेईमानी करें तो चल जाएगा? बाल्य अवस्था में बड़े नियमपूर्वक रहना, इसका अर्थ क्या यह है कि बड़े होकर हम नियमों को तोड़ सकते हैं? जगत में ऐसा ही देखा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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