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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
78.दुर्योधन का अपमान
इस राजसूय-यज्ञ में एक घटना ऐसी घटी कि दुर्योधन अप्रसन्न हो कर इन्द्रप्रस्थ से हस्तिनापुर चला गया। राजसूय-यज्ञ के बाद युधिष्ठिर का जैसा वैभव बढ़ा, हर प्रकार की जो अभिवृद्धि हुई, उसे देखकर दुर्योधन का मन ईर्ष्या से भर गया। फिर एक दिन सभी लोग मयदानव के द्वारा निर्मित सभा, जो श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को बनवाकर दी थी, उसमें बैठे थे। वह ऐसा मायावी महल था कि उसमें जल की जगह काँच और काँच की जगह जल का आभास होता था। वह सभा भरी हुई थी। उसी समय जल का आभास होता था। वह सभा भरी हुई थी। उसी समय दुर्योधन वहाँ प्रविष्ट हआ। जहाँ थल (काँच) था उसे जल समझकर उसने सम्हलते हुए पैर रखा और जहाँ पर जल था उसे थल समझकर वह जल में गिर पड़ा। तब उसे देखकर द्रौपदी, भीमसेन तथा वहाँ उपस्थित नरपति हँस पड़े। उससे दुर्योधन क्रोधित हो गया और वह उसी समय सभा से निकल कर हस्तिनापुर लौट गया। एक प्रकार से, इसी घटना से महाभारत युद्ध का बीजारोपण हो गया। महाभारत में इसका बड़े विस्तार से वर्णन किया गया हैं भागवत में तो एक अध्याय में संक्षेप में बताया गया है क्योंकि वह इसका मुख्य विषय नहीं है। इसलिए भागवत को भली प्रकार से समझना हो तो थोड़ा महाभारत भी पढ़ना चाहिए। पाण्डवों की प्रसन्नता के लिए राजसूय-यज्ञ के बाद, भगवान अपने सगे सम्बन्धियों के साथ कुछ महीनों तक इन्द्रप्रस्थ में रहे। अचानक एक दिन उन्हें लगा कि कहीं उनके शत्रु द्वारका को न घेर बैठे। हुआ भी ऐसा ही था। श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति देखकर शाल्व जिसने रुक्मिणी स्वयंवर के समय प्रतिज्ञा की थी कि मैं पृथ्वी को यादव विहीन कर दूँगा, उसने द्वारका पर चढ़ाई कर दी। प्रद्युम्न के साथ उसका युद्ध हो रहा था। तब भगवान वहाँ पहुँचे और उन्होंने शाल्व का और उसके बाद दन्तवक्त्र तथा विदूरथ का भी उद्धार कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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