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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
18.अवधूतोपाख्यान (चौबीस गुरुओं की कथा)
अब आगे का प्रसंग बहुत ही बढ़िया है। इसके प्रारंभ में ही एक विशेष बात कही गयी है, उसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। लोग प्रायः कहते रहते हैं कि हमने सुना है कि गुरु बनाना चाहिए क्योंकि गुरु के बिना मनुष्य की गति नहीं होती। वे सोचते रहते हैं कि हम किसको गुरु बनाएँ? और इसी सोच में पड़कर वे गुरु को ढूँढते भी रहते हैं। लेकिन ऐसे ढूँढ-ढाँड कर कोई गुरु नहीं बन सकता क्योंकि सच तो यह है कि गुरु बनाए नहीं जाते। यदि कोई इस प्रकार से किसी को गुरु बना भी ले, तो एक दिन वह उन्हें छोड़ भी सकता है, छोड़ ही देता है। यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु के विषय में एक बहुत अच्छी बात बताई है। इसे अच्छी तरह समझ कर ध्यान में रखना चाहिए। भगवान कहते हैं-
इस जगत में ‘लोक तत्त्व विचक्षणः’ जो बुद्धिमान लोग होते हैं, वे स्वयं अपने प्रयत्न से अपना उद्धार कर लेते हैं। गीता जी में कहा गया है कि हम स्वयं ही अपने सबसे अच्छे मित्र हैं (मन यदि अपने वश मे हो तो) और हम स्वयं ही अपने सबसे बुरे शत्रु हैं (मन यदि अपने वश मे हो तो)। यहाँ भगवान कहते हैं- ‘आत्मनो गुरुरात्मैव’ हम स्वयं ही अपने सबसे बड़े गुरु हैं। ऐसी बात हमें और कहीं देखने को नहीं मिलती। हम स्वयं अपने गुरु हैं- ऐसा सुनने पर लगता है यह कैसी बात है? यह तो हमारी समझ में नहीं आती। अब तक तो हमने यही सुना था कि गुरु की शरण में जाना चाहिए, गुरु के बिना ज्ञान नहीं होता, गति नहीं होती। इसीलिए, यहाँ भगवान के कथन का भाव अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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