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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
8.तृतीय प्रश्न - माया का स्वरूप
अब यह तो प्रायः सभी जानते हैं कि भक्ति में जो बाधक तत्त्व है वह है ‘माया’। यह माया हमें जल्दी से भगवान के पास जाने नहीं देती। इसलिए राजा निमि तीसरा प्रश्न पूछते हैं
वे कहते हैं, ‘‘भक्ति के मार्ग से माया बड़े-बडे़ मायावियों को भी मोहित कर देती है। वह माया क्या है? यह आप हमें समझा कर बातइए।’’ इसका उत्तर तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्ष जी ने दिया है। उन्होंने दो प्रकार की माया का वर्णन किया है उसी को तुलसीदास जी ने इस प्रकार कहा कि माया दाे प्रकार की होती है। एक अविद्या माया और दूसरी विद्या माया। जो सम्पूर्ण जगत् का सृजन करती है उसे विद्या माया कहते हैं।
गीता जी में भगवान कहतें हैं,‘‘मेरी अध्यक्षता में, प्रकृति चराचर सृष्टि की रचना करती है।’’ यह जो पंच महाभूतों की सृष्टि, स्थिति तथा लय करने वाली माया है वह हमारी समस्याओं का कारण नहीं हैं। लेकिन-
जीव जब इस सृष्टि के साथ तादात्म्य करके यह मैं हूँ, यह मेरा है, यह उसका है, यह अच्छा है, यह बुरा है, इस प्रकार उसमें राग-द्वेष का निर्माण कर लेता है तब उसे ही अविद्या माया कहते हैं। हम जीवों ने मैं, मेरा वाली जो सृष्टि बना ली है, वही अविघा माया का कार्य है, वही हमें बन्धन में डालने वाली होती है। वही हमें साधना में, भक्ति में आगे बढने से रोकती रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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