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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
6.वृत्रासुर की भगवद्भक्ति व भगवत प्राप्ति
इन्द्र देव जब उसके साथ युद्ध करते हैं, तो एक बड़ी विचित्र बात देखने को मिलती है। वृत्रासुर के हृदय में भगवान के लिए जो भक्ति है, वह वहाँ पर प्रकट होने लगती है। वह कहता है, ”इन्द्र, तुम मुझे मार डालो। मेरा मन भगवान में लगा हुआ है। भगवान के लिए मेरा मन व्याकुल है।“ कितना व्याकुल है? वृत्रासुर ने यहाँ बहुत सुंदर बात कही है।
वृत्रासुर के मन में ऐसी भक्ति प्रकट हुई कि वह कहने लगा - अरविन्दाक्ष कमलनयन भगवान, मेरा यह मन आपको देखने के लिए व्याकुल हो रहा है। कैसे? ‘अजातपक्षा इव मातरं खगाः’ जैसे पक्षियों के छोटे-छोटे बच्चे जिनके अभी पंख भी न उगे हों, उनकी माँ कहीं गई हो, तब वे जिस प्रकार उसके वापस आने की प्रतीक्षा करते हुए छोटे से घोंसले में बैठे रहते हैं कि माँ आएगी, कुछ दाना देगी, उस प्रकार से। ‘स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः’ देखो, गाय कहीं चरने के लिए चली गई हो। बछड़ा भूख से व्याकुल हो रहा हो तब वह कितनी तीव्रता से प्रतीक्षा करता रहता है। कभी जिसने गाय और बछड़े के मिलन को देखा हो वह इस बात को समझ सकता है। गाय को देखना चाहिए कि किस तरह से वह दौड़कर आती है, और बछड़ा भी किस तरह से दौड़कर उस से लिपट जाता है। ‘प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा’ या फिर जो अत्यन्त निष्ठावान्, अपने पति से अत्यंत प्रेम करने वाली स्त्री हो, उसका पति कहीं दूर चला गया हो, उसको विरह हो रहा है, तब वह जिस प्रकार से अपने पति के लौटने की प्रतीक्षा करती रहती है, उसी प्रकार से, हे भगवन! मेरा मन भी आप आपको देखने के लिए व्याकुल हो रहा है। वह इन्द्र से कहता है, ”इन्द्र यह तो दुनिया है। इसमें हार-जीत, जीना-मरना, सब चलता रहता है। तुम मुझे मार भी दोगे तो मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता। मैं भगवान में रमा हूँ।“ इन्द्र देव उसकी भक्ति देखकर आश्चर्यचकित होते हैं। वहाँ बड़ा भारी युद्ध होता है। अन्त में वृत्रासुर का मरण होता है। लेकिन वृत्रासुर भगवान के साथ एक रूप हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.11.26
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