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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
33.गोवर्धन-धारण-लीला
यहाँ देखो, यह समय भगवान सात साल के थे। तथापि उन सभी बड़े-बूढ़ों को, सारे व्रजवासियों को इस छोटे से बालक पर कुछ ऐसा विश्वास हो गया था कि वे उसकी बात को मान गए और कहा कि ठीक है, ऐसा ही करते हैं। उन्होंने देख लिया था कि वह बड़ा विलक्षण बालक है इसलिए उन सबने उसका कहा मान लिया। बोले, चलो ठीक है। इन्द्र-याग के लिए जो तैयारी की गई थी, उससे उन सब ने गोवर्धन की पूजा शुरू कर दी।
तब भगवान ने पुनः कहा, “बाकी जो अन्न है उसे अश्व, चाण्डाल आदि सबको दे दो। इन्द्र को देने की जरूरत नहीं।” इस प्रकार भगवान ने इन्द्र को गुस्सा दिला दिया। जिसमें अभिमान बहुत बढ़ गया हो उसे थोड़ा भी छेड़ दो तो वह फट से आहत हो जाता है। जब गोवर्धन की पूजा होने लगी तो इन्द्र को क्रोध आ गया। अच्छा! यह बात है! इनकी यह हिम्मत? ऐसा सोचकर इन्द्र ने भयंकर वर्षा करनी शुरु कर दी। मानो प्रलय काल के बादल आकाश में छा गये हों। सब ओर पानी-पानी हो गया। देखो, फिर भी भगवान स्वयं हो कर कुछ नहीं कर रहे हैं। वर्षा में भीग कर सब लोग ठंड से त्रस्त हो गए।
तब सब-के-सब भगवान की शरण में जाकर कहने लगे, “कृष्ण-कृष्ण महाभाग भगवान हम पहले ही कह रहे थे, इन्द्र नाराज हो जाएँगे, देखो वे अतिवृष्टि करने लगे हैं। आप तो महाभाग हैं, लेकिन हमारा भाग्य आप ही के हाथों में है, हमारी रक्षा कीजिए।” भगवान ने कहा, ”अच्छा चिन्ता मत करो।” एक ही हाथ से उन्होंने गोवर्धन पर्वत को ऐसे उखाड़ लिया मानो कोई छत्रक पुष्प को उखाड़ रहा हो। और फिर उस पर्वत को धारण कर लिया, एक छोटी-सी ऊँगली पर। इतना ही नहीं, दूसरी हाथ से मुख में लगी हुई बाँसुरी भी पकड़े हुए हैं। उस छवि की कल्पना करो जरा। यह गोवर्धन-लीला है। फिर अपने हाथ को ऊँचा उठा कर पर्वत का एक छाता-सा बना दिया। फिर कहा, “सब-के-सब इस गिरिराज के नीचे आ जाओ। डरना नहीं, मैं पर्वत को गिरने नहीं दूँगा।” भगवान श्रीकृष्ण का आश्वासन पाकर सारे व्रजवासी अपने-अपने छकड़े, गौएँ, बछड़े, सामान आदि सब लेकर छत्र रूपी पर्वत के नीचे गड्ढे में आ गये। सात दिनों तक वर्षा होती रही और भगवान खड़े रहे, उस पर्वत को अपनी उँगली पर लिये हुए। उस समय भगवान की आयु सात साल की थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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