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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
14.राजा परीक्षित को ऋषिपुत्र का शाप
राजा परीक्षित एक बार शिकार करने के लिए निकले और जंगल में दूर निकल गये। भूख-प्यास से त्रस्त होकर वे एक आश्रम पहुँचे जहाँ एक ऋषि ध्यान मग्न थे। देखो, भूख-प्यास से जब आदमी व्याकुल हो जाता है तो उसकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है और उसकी समझ काम नहीं करती। इसीलिए जब बहुत भूख लगती है तो लगता है कि क्या करें, किसको खायें, किसको तोड़ें-फोड़ें या मार दें। भूख लगने पर बच्चे कितना क्रोध करते हैं? खाने-पीने के बाद तो वे शान्त हो जाते हैं, लेकिन उस के पूर्व पता नहीं, जैसे किसी राक्षस का अवतार बने रहते हैं। अब राजा परीक्षित ने ध्यानस्थ ऋषि के सामने खड़े होकर पीने के लिए जल माँगा तव वे ऋषि समाधि में थे, उन्हें कुछ सुनाई नहीं पड़ा, अतः, राजा परीक्षित को कुछ मिला नहीं। उन्हें लगा उनका बड़ा अपमान हुआ है। इसी कारण राजा को बहुत क्रोध आ गया। उन्होंने सोचा कि ये बड़े दम्भी हैं। मैं एक चक्रवर्ती राजा, यहाँ आया हूँ और ये मेरा सम्मान नहीं करते? राजा को इतना अधिक क्रोध आया कि पास ही पड़े हुए एक मृत सर्प को अपने एक बाण से उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया। देखो, परीक्षित जैसे ऊँचे चरित्र वाले परम धार्मिक व्यक्ति ने ऐसा कार्य किया। इसका तात्पर्य क्या हुआ? यही कि आदमी को सर्वदा सावधान रहना चाहिए। कोई कितना ही बड़ा हो जाए लेकिन कभी-कभी उसका दिमाग इस तरह फिर जाता है कि उसके द्वारा ऐसा निकृष्ट कर्म हो जाता है। यहाँ एक बात यह भी है कि ऐसा काम करके कभी-कभी लोग बोलते हैं कि परीक्षित ने भी ऐसा किया था, मैंने किया तो क्या बिगड़ गया? अपनी तुलना परीक्षित के साथ कभी नहीं करना। क्योंकि देखने की बात यह है कि राजा परीक्षित हमेंशा कैसे रहते थे? जीवन में मात्र एक बार उनसे इस प्रकार का अपराध हुआ था। हमसे निरंतर ही अपराध होते रहते हैं। हमारी और उनकी क्या तुलना है? अच्छा इतनी ही बात नहीं है। इस घटना के बाद आगे क्या हुआ, वह इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। सच बात तो यह है कि परीक्षित जैसे व्यक्ति के मन में ऐसा कोई भाव आता है, तो वह भगवान का ही संकल्प है। जैसे, युद्धभूमि में अर्जुन को जो मोह हुआ, वह क्या सच में अर्जुन को मोह था? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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