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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
39.युगलगीत
इसके बाद युगल गीत का प्रसंग आता है। जब कभी भगवान (गायों को चराना) के लिए वन में जाते थे, तो उनकी अनुपस्थिति में सारी गोपियाँ भगवान की लीला का ध्यान करती रहती थीं, उनका स्मरण करके गान करती रहती थीं। फिर संध्या के समय जब भगवान सामने आते थे तो उनका दर्शन करती थीं। इसलिए भगवान का दर्शन और दर्शन के अभाव में स्मरण करते रहना, यही हमारी साधना होनी चाहिए। और हम कर भी क्या सकते हैं? देखो अभी हम कहाँ हैं? गोकुल में, वृन्दावन में हैं, यानी अभी हम इन्द्रियों के समूह में बैठे हुए हैं। ऐसी स्थिति में भगवान की लीलाओं का स्मरण ही तो कर सकते हैं, यही सुलभ है। अब देखो भगवान थोड़े बड़े हो गए, आठ साल के हो गए। भगवान जानते हैं कि उन्हें सदा वृन्दावन में ही नहीं रहना है। भगवान ने सोचा कुछ समय बाद मुझे यहाँ से जाना होगा, लेकिन उसके पहले, ऐसा हो जाए कि ये गोकुलवासी मेरी भक्ति में निमग्न हो जाएँ, डूब जाएँ। फिर उसके बाद उनकी भक्ति में किसी प्रकार का विघ्न भी न आने पाये। भगवान जानते हैं कि हम सब का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जब तक (हमारे सामने) कोई कथा या प्रवचन-ज्ञानयज्ञ चलता रहता है, तब तक तो हम घर का काम-काज छोड़-छोड़कर भी कथा में पहुँच जाते हैं, सुनते हैं लेकिन जब उसकी समाप्ति का समय आता है तो सोचते हैं अब क्या करेंगे? इसके अभाव में क्या होगा? तब हम ‘दूरदर्शन’ देखने में, या दूसरी चीजों में लग जाते हैं। इसी कारण हमारा भाव दृढ़ नहीं हो पाता, पक्का नहीं हो पाता। जबकि, सत्संग में जो आनन्द मिला वह टिकना चाहिए, उसका रसानुभूति में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आना चाहिए। कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि लोग एक गुरु के बाद दूसरे किसी को गुरु बना लेते हैं। या फिर, जब उनको कोई साधना का दूसरा मार्ग बता देता है, तो वे उसी पर चलने लग जाते हैं। उनको पहले जो साधना बताई गई थी उसे छोड़ देते हैं, दूसरी साधना करने लग जाते हैं। ऐसे लोग किसी साधना में टिक नहीं पाते। उनकी एक निष्ठा नहीं रह पाती। उन साधकों की बड़ी दुःखद स्थिति हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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