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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
6.आत्मदेव तथा धुंधुली की कथा
तुंगभद्रा तट पर आत्मदेव नाम के एक ब्राह्मण रहते थे। उस ब्राह्मण रहते थे। उस ब्राह्मण की एक पत्नी थी। उसका नाम धुंधली। थोड़े शब्दों में उसका बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है। वह आत्मदेव बड़ा शास्त्रज्ञ था। वैदिक कर्मों में विश्वास रखने वाला था। लेकिन उसकी पत्नी ‘स्ववाक्य स्थापिका’ यानी अपनी ही बात पर अड़ने वाली थी। वह सबके ऊपर आरोप लगाती रहती थी। ‘लोकवार्तारता’ गपशप में उसको बहुत मजा आता था। ‘क्रूरा’ वह क्रूर भी थी, ‘बहुजल्पिका’ बहुत बोलने वाली थी। ‘शूरा च गृहकृत्येषु’ - घर के कामों में कुशल थी और ‘कलहप्रिया’ झगड़ा करना उसको बहुत अच्छा लगता था। कहीं-न-कहीं झगड़ा कर बैठना और सबको बुरा कहना उसका स्वभाव था। कहीं जाना हो और उसे न बुलाया जाय तो बस, नाराज होकर शाप देने लग जाती। एक बार वहाँ के लोग कहीं विहार के लिए जा रहे थे। जाते समय किसी को याद आ गया कि धुंधुली को तो बुलाया ही नहीं। बाद में उसको गुस्सा आ जाएगा, वह झगड़ा करेगी, तो वे उसके पास जाकर बोले, ‘‘धुंधुली, पिकनिक के लिए चलो।’’ वह बोली, ‘‘जब तो बहुत देर हो गयी है। मैंने पहले ही बोल दिया है कि बारिश हो जाए।’’ भगवान से उसने प्रार्थना की थी कि ये लोग पिकनिक जाने वाले हैं, वहाँ बारिश हो जाए- वह ऐसी कहलप्रिया थी। ये दोनों पति-पत्नि वहाँ रहते थे, परन्तु उनके कोई पुत्र नहीं हुआ था। आश्चर्य की बात है कि उस पत्नी को इस बात का कोई दुःख नहीं था। लेकिन आत्मदेव को बड़ा ही बुरा लगता था। बहुत दुःखी होकर एक दिन वे घर छोड़कर वन में चले गये। बोले - अब तो मैं जा रहा हूँ। बिना पुत्र के घर में क्या रहना? एक दिन वे निराश होकर थके-हारे किसी तालाब के निकट बैठे थे। तब वहाँ पर एक संन्यासी आये। आत्मदेव उन्हें नमस्कार करते हुए उनके चरणों पर गिर पड़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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