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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
15.मत्स्यावतार
अब इस स्कन्ध के अंतिम अध्याय - चौबीसवें अध्याय में भगवान के मत्स्यावतार का वर्णन है। सत्यव्रत नाम के एक राजर्षि हुये। वे बड़े तपस्वी, श्रेष्ठ पुरुष थे। भगवान अगले मन्वन्तर में उनको मनु बनाना चाहते थे। भगवान ने सोचा इनको मनु बनाना है, तो इनको उसके योग्य भी बनाना पड़ेगा। तो उनको योग्य बनाने का उत्तरदायित्व भगवान स्वयं पर लेते हैं। राजर्षि में वैसे तो सभी गुण थे परन्तु थोड़ा सा अभिमान था कि मैं राजा हूँ और सबका रक्षक हूँ। भगवान ने सोचा इनका अभिमान मिटा दिया जाए तो ये ठीक हो जायेंगे और अगले मन्वन्तर के मनु बनने योग्य हो जायेंगे। देखो कितनी कृपा है। धर्म और सद्धर्म का अन्तर हम देख चुके हैं। धर्म वह है जिसका आचरण हम अपनी शक्ति से करते हैं, और सद्धर्म वह है जिसका आचरण भगवान अपनी शक्ति से करा लेते हैं। एक दिन राजर्षि सत्यव्रत ने नदी में स्नान करके अर्घ्य प्रदान करने के लिए जल उठाया तो एक छोटी सी मछली उनके हाथ में आ गई। जाने क्यों उसके ऊपर उन्हें बड़ा प्यार आया और वे उसे कमण्डलु में डाल कर ले आए। दूसरे दिन देखते क्या हैं कि वह बड़ी हो गई है। राजर्षि को देखकर वह कहने लगी कि कमण्डलु का पानी मेरे लिए पर्याप्त नहीं है। राजर्षि ने उसे एक बड़े मटके में डाला तो वह पुनः बढ़कर उस के जितनी बड़ी हो गयी। अब देखो, दूसरे ही दिन वह इतनी बड़ी हो गई। अरे! कोई मछली इतनी तेजी से बढ़ती है क्या? राजा सत्यव्रत ने सोचा कि मैं इसकी रक्षा करूँगा। यहाँ देखने की बात यह है कि भगवान उसके रक्षकपन के अभिमान को किस प्रकार मिटा रहे हैं। तो राजर्षि ने उसको उठाकर एक सरोवर में डाल दिया। वह और बढ़ गई और बोली इतना पानी मेरे लिए पर्याप्त नहीं है। तो उसे उठाकर एक बहुत बड़े ह्रद में डाल दिया। वह पुनः बढ़ गई। इस प्रकार सत्यव्रत उसे अनेक बड़े-बड़े सरोवरों में डालते गए परन्तु वह हर बार उतनी ही बड़ी हो जाती। बोले अब इसको समुद्र में डालते हैं। समुद्र में डालते समय वह मछली राजा सत्यव्रत से कहने लगी-समुद्र में बड़े बड़े मगर आदि मुझे खा जाएँगे। आप मुझे समुद्र में न डालिए। तब सत्यव्रत मुग्ध होकर उसे देखने लगे। वे नमस्कार कर के बोलते हैं, “हे मत्स्य महाराज आप कौन हैं?” मुझे तो नहीं लगता कि कोई मछली ऐसे दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती हो। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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