विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
5.अवधूत-धर्म
तत् पश्चात वे परमहंस का धर्म, उसकी चर्या प्रकट करने लिए के निकल पड़ते हैं। नग्न अवस्था है, अवधूत वेश है, बाल बिखरे हुए हैं और वे विरक्त बन कर चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने मुँह में पत्थर रख लिया था। कुछ बोलना ही नहीं है। लोग उनको समझते नहीं थे। कोई पत्थर मारता था तो कोई उनके ऊपर गन्दगी फेंक देता था। उन्हें इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। एक पेड़ के नीचे पड़े रहते थे, अजगर के समान। कुछ मिला तो खा लिया नहीं तो ऐसे ही रह गए। उनका जो मल-मूत्र निकलता था उससे भी सुगंध निकलती थी। उसमें भी दुर्गंध नहीं आती थी। ऐसी नग्न और विचित्र अवस्था में भी उनके शरीर का सौन्दर्य इतना था और चेहरे पर मुस्कान ऐसी बनी रहती थी कि उस स्थिति में भी स्त्रियाँ उन पर मोहित हो जाती थीं। लेकिन इनको किसी से कोई लेना न देना, चले जा रहे हैं। ये ऋषभदेव हैं। अनेक प्रकार की सिद्धियाँ उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ी रहती थीं, लेकिन इन्होंने किसी भी सिद्धि को स्वीकार नहीं किया। राजा परीक्षित शुकदेवजी से प्रश्न पूछते हैं - महाराज, वे तो बड़े ही ज्ञानी स्थितप्रज्ञ थे, तब यदि वे किसी सिद्धि को स्वीकार कर भी लेते तो उनका क्या बिगड़ जाता? देखो, उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन ज्ञानी पुरुष हम सबको यह सिखाते हैं कि अपने मन पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए।
यह मन बड़ा कुटिल कपटी होता है। जहाँ हमने इस पर भरोसा किया वहीं यह हमें चक्कर में डाल देता है। मरते समय तक इस पर भरोसा नहीं करना चाहिए। इस संदर्भ में एक बड़ी रोचक कथा है। एक संत थे जिनके पास आकर एक वेश्या रोज उनसे पूछती थी - क्या आपने कामवासना को जीत लिया? वे कोई उत्तर ही नहीं देते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.6.2
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज