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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.धुंधुकारी का पतन व उद्धार
बड़ा होकर गोकर्ण तो विरक्त ज्ञानी, पण्डित बन गया परन्तु धुंधकारी महादुष्ट, क्रूर और भयकारी बन गया। मारना, पीटना, खेलते हुए बच्चे दिख जाएँ तो उन्हें कुएँ में डाल देना आदि कुकर्म करने लगा। ‘शवहस्तेन भोजन’ शवहस्त से भोजन, अर्थात मुर्दे का स्पर्श करके उसी हाथ से अन्न भी खा लेता था। शवहस्त का दूसरा अर्थ है मरा हुआ हाथ, अर्थात जो हाथ कभी दान नहीं करता। तो धुंधुकारी कभी दान तो करता नहीं था, केवल भोग करता रहता था। फिर वह अपने माता-पिता को भी गाली देने लगा, मारने लगा। वेश्याओं के फंदे में फँसकर उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। अब आत्मदेव रोने लगे। बोले उस संन्यासी ने पहले ही कह दिया था। देखो, यह कैसा पुत्र हो गया? फिर वे सोचने लगे कि यहाँ तो दुःख-ही-दुःख है। तथापि, वे भगवान को धन्यवाद देने लगे। बोले, इस बच्चे के कारण मुझे संसार वैराग्य हो गया। संसार में कोई सार नहीं- यह बात मेरी समझ में आ गयी। तब गोकर्ण, जो बड़ा समझदार पुत्र था, वह कहता है- पिताजी अब आप झूठी आशाएँ छोड़कर वन में चले जाइए। आत्मदेव बोले, ‘‘बेटा, मैं वन में जाकर क्या करुँ? मुझे समझाकर बता दो। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। अब मैं साठ साल का हो गया हूँ, लेकिन बुद्धि तो कुछ है नहीं ‘साठी बुद्धि नाठी’। अब तुम ही समझाकर बता दो।’’ तक गोकर्ण ने उनको जो उपदेश दिया, वह बहुत सुन्दर है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा.मा. 4.79
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