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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.वृत्रासुर का पूर्व चरित्र
यह कथा जब परीक्षित ने सुनी तो उनको आश्चर्य हुआ। अत्यंत राजसिक और तामसिक स्वभाव वाले वृत्रासुर के हृदय में ऐसी भक्ति कहाँ से आई? उसकी पूर्वकथा बताते हैं कि पहले (पूर्व जन्म में) वह राजा चित्रकेतु था। वही बाद में तप के द्वारा विद्याधर लोक को प्राप्त हुआ। शेष भगवान के द्वारा दिए गए विमान में बैठकर विचरण करता हुआ, एक दिन वह कैलाश पर्वत पर पहुँच गया। वहाँ उसने देखा कि पार्वतीजी शिवजी की गोद में बैठी हैं और अनेक ऋषि मुनि भी वहाँ पर बैठे हैं। चित्रकेतु ने भगवान शंकर की हँसी उड़ाई कि सामान्य आदमी भी सबके सामने अपनी पत्नी को गोद में लेकर नहीं बैठता है। लगता है इनको तो सामान्य धर्म का भी ज्ञान नहीं है। तत्त्वज्ञान की, धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और भरी सभा में पत्नी को गोद में बिठाते हैं। सुनकर पार्वतीजी को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उसे शाप दिया कि तुम असुर बन जाओ। उसने कहा - माताजी माफ करना, आपको दुःख हुआ, इस बात का मुझे दुःख है। मैं असुर बनने को तैयार हूँ। आपने शाप दिया तो वैसा ही होगा, क्योंकि देवता लोग मिथ्या भाषण नहीं करते। वे जैसा कहें वैसा ही होना होता है। ऐसा कहकर चित्रकेतु चला गया। शिवजी ने पार्वतीजी की ओर देखते हुए कहा, ”देखा भक्त कैसा होता है? उसने क्षमा तो माँगी परन्तु यह नहीं कहा कि मुझे शाप से मुक्त कर दीजिए। इसलिए क्षमा माँगी कि उसकी बात से आपको दुःख हुआ। उसे इसी बात का दुःख है।“ तो वह असुर बन गया। लेकिन उसकी पूर्व-पूर्व की भक्ति तब भी प्रकट हो ही गई। अब यहाँ धर्म की बात देखो। चित्रकेतु जो विद्याधर बनकर आया था। उसने क्या कहा? यही कि सामान्य पति भी पत्नी से एकान्त में मिलता है। सबके सामने थोडे ही इस प्रकार पत्नी को लेकर बैठता है। तब शिवजी ने कहा, ”अरे भाई मेरे अलावा दुनिया में है कौन? जरा सोचो तो सही। तुम सोचते हो, यह समाज मुझसे अलग है। मेरे लिए सब मैं ही हूँ। तो किसी से क्या छिपाना? और, वह सिर्फ पास में बैठी ही तो है। हम दो दीख रहे हैं, दो हैं नहीं, केवल दीख रहे हैं।“ जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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