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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
6.ध्रुव का वन-गमन
देखो, साँप को मारा जाए तो वह कैसा फुँफकारता है? ध्रुव भी क्षत्रिय बालक है। सौतेली माँ की बात उसके हृदय में चुभ गयी और जब उसने देखा कि पिता जी भी कुछ नहीं बोलते, तो वह वहाँ से निकल पड़ा। उसके मन में दुःख भी है, और क्रोध भी है। रोता हुआ वह अपनी माँ के पास गया।
बेटा, किसी को दोष नहीं देना। यहाँ हम सब अपने-अपने कर्मों के फल भोगते रहते हैं। वह सौतेली माँ है तो क्या हुआ? उसने बात तो ठीक ही कही है कि भगवान की आराधना करनी चाहिए। देखो, यह कितनी अच्छी स्त्री है, केवल उतनी बात को ले लेती है, आगे की बात को उसने छोड़ दिया। यही उसकी समझदारी है। बोली, बेटा उसकी बात सही है। राजा की तुम्हारे ऊपर अभी कृपा नहीं है। लेकिन जैसा कि तुम्हारी सौतेली माँ ने कहा है, तुम उस अखिल ब्रह्माण्डपति परमात्मा की पूजा करो। उनको प्रसन्न करो। वे प्रसन्न हो जाएँगे तो तुमको उन्हीं भगवान की गोद में स्थान मिल जायेगा। तुम्हें ऐसा ध्रुव स्थान मिलेगा कि वहाँ से कभी कोई तुम्हें हटने को नहीं कहेगा। देखो, इसलिए कहा जाता है कि ऐसी जगह पर बैठना चाहिए कि जहाँ से हमें उठने को न कहे। बेटा, अब तुम जाओं और भगवान की आराधना करो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। वह बालक तुरंत चल पड़ा। कहाँ जाना है, क्या करना है, कुछ पता नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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