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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
11.षष्ठ प्रश्न - कर्मयोग का स्वरूप
अब राजा निमि कहते हैं- भगवन! बचपन में एक बार मेरे पिताजी के समक्ष, सनत्कुमार आदि हमारे घर आये थे। तब मैंने उनसे एक प्रश्न पूछा था, लेकिन उन्होंने उसका उत्तर नहीं दिया था। क्यों नहीं दिया था यह मुझे नहीं मालूम। आप मेरे उस प्रश्न का समाधान कीजिए।
आप मुझे वह कर्मयोग बताइये जिसके द्वारा मनुष्य का मन सुसंस्कृत व शुद्ध हो जाता है। और उसे नैष्कर्म्य की, शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। साथ ही यह भी बताइए कि सनत्कुमारादि मुनियों ने मेरे प्रश्न का उत्तर क्यों नहीं दिया था। अब तक यह बताया गया कि मन शुद्ध होने पर परमात्मा का दर्शन हो जाता है। उनके स्वरूप का बोध हो जाता है। संक्षेप में मन शुद्धि का उपाय भी बता दिया गया। लेकिन अब विस्तार से बताते हैं। कर्म योग के विषय में राजा निमि के प्रश्न (छठे प्रश्न) का उत्तर देते हुए आविर्होत्र योगीश्वर कहते हैं कि बेटा बात यह है कि कर्म के विषय में कवि, पण्डित आदि भी मोहित हो जाते हैं। और फिर उस समय तुम बालक थे, तब तुम्हारी बुद्धि में कर्म-अकर्म-विकर्म के रहस्य को समझने की परिपक्वता नहीं थी। इसलिए तब सनत्कुमारों ने तुम्हें नहीं बताया था।
कर्म क्या होता है, अकर्म क्या होता है, विकर्म क्या होता है यह तो वेद शास्त्र से ही समझने योग्य है। यह लौकिक चर्चा का विषय नहीं है। ‘वेदस्य चेश्वरात्मत्वात्’[3] वेद तो भगवान से प्रगट हुए हैं, भगवत स्वरूप हैं। अर्थात कर्मयोग क्या होता है यह समझने के लिए वेदों को पढ़ना पड़ता है। उसके लिए वेदों को समझना आवश्यक होता है। लेकिन, भगवद्भक्ति के बिना वेदों का रहस्य भली प्रकार समझ में नहीं आता। देखो, यह भागवत तो भक्ति शास्त्र है। अतः यहाँ सब ओर से मोड़ कर शुकदेव जी पुनः हमें भगवद्भक्ति में ले आते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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