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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
84.भस्मासुर का नाश
राजा परीक्षित ने एक बड़ा विलक्षण प्रश्न पूछा। वे कहते हैं, “भगवान मैं यह बड़ी विचित्र बात देखता हूँ कि शिवजी स्वयं तो फक्कड़ बाबा हैं, भस्म लगाकर एक जगह पर बैठे रहते हैं। उनका कोई वैभव या ऐश्वर्य तो दिखायी नहीं देता। लेकिन जो उनकी भक्ति करते हैं, उन्हें तो बड़ा वैभव प्राप्त होता है। जबकि विष्णु भगवान स्वयं तो लक्ष्मी पति हैं लेकिन उनकी भक्ति करने वाले न तो संख्या में अधिक दिखाई देते हैं और न ही वे ज्यादा वैभवशाली बनते हैं।” शुकदेवजी महाराज कहते हैं, “देखो, बात ऐसी है कि शिवजी बड़ी जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। शिवजी का नाम ही आशुतोष है। आशुतोष माने वे जो शीघ्र सन्तुष्ट हो जाएँ। वे औघड़ दानी हैं। उनसे जो माँग लो वे दे देते हैं और देकर कभी-कभी अपने आपको संकट में डाल लेते हैं। विष्णु भगवान ऐसे नहीं हैं। वे अपने भक्तों की बड़ी परीक्षा लेते हैं, जल्दी से वर नहीं देते। शिवजी का स्वभाव ऐसा है कि किसी ने जरा-सी भी तपस्या कर ली, तो बस वे प्रसन्न हो कर उसे वर दे देते हैं। जबकि विष्णु भगवान जिस पर प्रसन्न होते हैं पहले उसका धन लूट लेते हैं। तब उसके रिश्ते-नाते वाले उसे त्याग देते हैं। तब वह धनार्जन में लग जाता है। तो उसमें भी विष्णु भगवान उसे विफल कर देते हैं। तब आखिर वह हर ओर से त्रस्त होकर विरक्त हो जाता है। तब विष्णु भगवान उसकी भक्ति बढ़ाकर फिर उस पर कृपा करते हैं और तब उसे परब्रह्म की प्राप्ति होती है। इस सन्दर्भ में एक इतिहास प्रसिद्ध है। एक असुर था वृकासुर, बाद में उसी का नाम भस्मासुर हुआ। वह तप करके शिवजी को प्रसन्न कर लेता है। शिवजी प्रसन्न होकर उससे कहते हैं, “तुम्हें क्या चाहिए? वर माँग लो।” वह कहता है, “मैं जिसके सर पर हाथ रखूँ वह जल कर भस्म हो जाये।” सुनकर शिवजी पहले तो सोच में पड़ गए, तथापि हँसकर उन्होंने तथास्तु कह दिया। वर पा कर वृकासुर की बुद्धि बिगड़ गई। वर देकर शिव जी जाना ही चाहते थे कि इतने में वृकासुर कहता है, “यहाँ मेरे सामने आप ही हैं, तो सबसे पहले आपके ही सर पर हाथ रख कर देखता हूँ कि मेरे हाथ में वह शक्ति आ गई है या नहीं!” अब भगवान शंकर को लगा कि यह तो गड़बड़ बात हो गयी। मैंने तथास्तु कह दिया है, अतः अब वर तो सिद्ध होगा ही। ऐसा सोचकर वे भागने लगे, तो वह वृकासुर भी उनके पीछे-पीछे भागने लगा। भागते-भागते शिवजी विष्णु जी के पास वैकुण्ठ में पहुँचते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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