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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
32.इन्द्र के अभिमान का मर्दन
इस के बाद इन्द्र-यज्ञ का प्रसंग आता है। भगवान ने देखा कि गोकुल में बड़ा भारी आयोजन हो रहा है। सारे लोग यज्ञ-याग की तैयारी कर रहे हैं। भगवान जानते सब हैं, लेकिन अनजान बनकर पिताजी से पूछते हैं कि पिताजी यह सब क्या चल रहा है? किस की तैयारी हो रही है? पिता जी कहते हैं, “बेटा ‘पर्जन्यो भगवानिन्द्रो’ देवराज इन्द्र पर्जन्य-वृष्टि के देवता हैं। वर्षा कर के वे सदा हमको प्रसन्न करते रहते हैं। इसलिए उनकी पूजा की जाती है। प्राचीन परंपरा से हम ऐसा करते चले आ रहे हैं। यह एक प्रकार से हमारा नियम बन गया है। उनको हम नमस्कार करते हैं, यज्ञ से प्रसन्न करते हैं।” भगवान कहते हैं, “यदि प्रसन्न नहीं करोगे तो क्या होगा?” “वे नाराज हो जाएँगे इसलिए हम यज्ञ करते हैं।” भगवान अब इन्द्र देव को थोड़ा क्रोध दिलाना चाहते थे क्योंकि इन्द्र को अभिमान हो गया था। भगवान नहीं चाहते कि कोई किसी के डर से भक्ति करे और भगवान यह भी नहीं चाहते थे कि इन्द्र पद को प्राप्त होकर कोई ऐसा बन जाए कि किसी ने यज्ञ नहीं किया, तो वृष्टि नहीं करें या ज्यादा वर्षा कर दें। भगवान ने सोचा यह कौन सा अभिमान आ गया है इसे? तो अब इन्द्र क्रोध दिलाने के लिए पिताजी से कहते हैं, “यह इन्द्र कौन होता है? वर्षा क्या इन्द्र करता है? कर्म से जीव का जन्म होता है, कर्म से उसका लय भी होता है। कर्म ही सबसे बड़ी चीज है। और ‘अस्ति चेदीश्वरः कश्चित्’[1] यदि मान भी लें कि कोई कर्मफलदाता ईश्वर है तो वह कर्मफल किसको देगा? कर्म का जो कर्ता होगा उसी को तो फल देगा न? जो कर्म करता ही नहीं उसको कैसे फल देगा? कर्ता लोगों का ईश्वर हो सकता है। अकर्ता का तो हो नहीं सकता। कोई कर्म करेगा तभी तो वह फल देने वाला होगा। और वह भी कर्म के अनुसार ही फल देता है, वह सर्वसमर्थ तो है नहीं। इन्द्र भी दिखता तो है नहीं, हमारे गोवर्धन पर्वत साक्षात दिखाई देते हैं और ये हमारी सेवा भी कर रहे हैं। मैं तो कहता हूँ गोवर्धन पर्वत की पूजा करो। और यह सारा अन्न ‘स्वाहा-स्वाहा’ करके इन्द्र को देने की जरूरत नहीं है। इसे सारी गौओं तथा ब्राह्मणों को बाँट दो बस! मैं तो यही ठीक समझता हूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.24.14
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