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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
3.हिरण्यकशिपु का तप व वरदान की प्राप्ति
वह कैसा तप करने लगा? पाँव के अँगूठों पर खड़ा होकर हाथ ऊपर कर के, और दृष्टि ऊपर करके हिरण्यकशिपु तप करने लगा और उसका तप ऐसा भयंकर हो गया कि उसके शरीर से ज्वाला के समान ताप निकलने लगा। उसके तप से पूरा ब्रह्माण्ड जलने लगा। सारे देवता व्याकुल हो गए। वे सब मिलकर ब्रह्माजी के पास गए और कहने लगे हिरण्यकशिपु भयंकर तप कर रहा है। ब्रह्माजी ने कहा - मैं जाता हूँ उसके पास। ब्रह्माजी की स्थिति ऐसी है कि कोई तप करता है तो वह जो माँग ले, ब्रह्माजी को उसे वह देना पड़ता है। फिर उस पर उनका कोई वश नहीं रहता। तो वे हिरण्यकशिपु के पास गए। उसका शरीर कहीं दीख नहीं रहा था। मिट्टी से ढक गया था। ब्रह्माजी ने अपना दिव्य जल छिड़का तो वह उस ढेर से निकलकर सामने खड़ा हो गया। ब्रह्माजी ने पूछा, ” हिरण्यकशिपु तुमको क्या चाहिए?“ असुर लोग एक माँग हमेशा किया करते थे, यही कि मैं मरूँ नहीं। मैं मरूँ नहीं अर्थात् मेरा देह बना रहे। हिरण्यकशिपु ने भी यही माँग की। ऐसा हो, तो अब देखो, असुर की क्या परिभाषा होगी? अपने देह में आसक्त होकर यह देह मैं हूँ, देह का भोग बना रहे, देह अमर रहे ऐसा सोचना तथा अपने दुःख को सत्य और दूसरे के दुःख को मिथ्या मानना, स्वयं को सुख मिले दूसरे को मिले या न मिले ऐसा जो सोचता है उसे असुर कहते हैं। इसलिए जब हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु आदि नाम लिए जाते हैं, तो उसके सींग होंगे, वह बड़ा भयंकर होगा, उसके जबड़े होंगे और दंष्ट्र निकले होंगे, ऐसा चित्र बनाने की या ऐसे भयंकर रूप की कल्पना करने की जरूरत नहीं। जिसको यह लगता है कि मैं देह हूँ, उसमें असुर का एक लक्षण आ गया, जब यह लगे कि मुझे मेरा भोग मिलता रहे, तो वह दूसरा लक्षण आ गया। दूसरे को मिले या नहीं मिले, कोई बात नहीं ऐसा लगे तो वह तीसरा लक्षण है। ये ही सारे आसुरी लक्षण कहलाते हैं, और जिसमें ये आ जाते हैं, वह असुर कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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