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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
15.परीक्षित का पश्चात्ताप व दण्ड की याचना
अब इधर परीक्षित की क्या स्थिति हुई? परीक्षित जब घर वापस गये और खाना खा लिया तो उनको सब याद आने लगा, क्योंकि धर्मात्मा तो वे थे ही। ‘अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं’[1] अरे, मैं कैसा नीच आदमी हूँ? मुझे सब लोग आर्य के हैं, श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं और मैंने ऐसा अनार्य-नीच व्यक्ति के जैसा काम कर दिया। ‘निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि’[2] ब्रह्मस्वरूप में स्थित निष्पाप उस ब्राह्मण का मैंने ऐसा अपमान कर दिया? यह तो बहुत बड़ा अपराध है। अब परीक्षित के हृदय की महानता देखो। वे सोचने लगे कि-
मैंने पाप किया है, तो अब मुझे ऐसा दण्ड मिलना चाहिए जिससे कि पुनः पाप में मेरी प्रवृत्ति कभी न हो। ऐसा सोचकर वे प्रतीक्षा करने लगे कि मुझे कुछ दण्ड मिले। देखो, कितनी बड़ी बात है! हम तो अपराध करके भी यही सोचते रहते हैं कि हमने कोई गलत काम किया ही नहीं, और जब दण्ड मिलने लगता है तो कहते हैं मुझे दण्ड क्यों मिल रहा है? मैंने ऐसा कौन-सा बुरा काम किया है? और यहाँ देखो, ये प्रतीक्षा कर रहें हैं कि मुझे कुछ दण्ड मिले जिससे मैं कोई बुरा काम न करूँ। अतः कभी हम कोई गलत काम करें और उसी समय यदि दण्ड मिले तो बहुत प्रसन्न होना चाहिए। कितने लोग ट्रेन में बिना टिकिट कटाए यात्रा करते हैं, चलो एक दिन मैं भी करूँ ऐसा सोचकर यदि हम भी कभी बिना टिकिट के यात्रा करें और उसी दिन पकड़े जाएँ तो बहुत खुश होना चाहिए। जबकि हमें तो ऐसा लगता है कि देखो, इतने लोग यही करते हैं परन्तु वे नहीं पकड़े जाते, मैं पहले ही दिन पकड़ा गया। अरे! तुम्हारे ऊपर भगवान बहुत खुश हैं। इसीलिए पहले ही दिन तम्हें गलत कर्म करने से उन्होंने रोक लिया। यह बात जल्दी-से हमारी समझ में नहीं आती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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