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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
15.परीक्षित का पश्चात्ताप व दण्ड की याचना
आपको सच बात बता रहे हैं, जब कभी हमें अपराध का दण्ड तुरन्त मिल जाए तो यही समझना कि हमारे ऊपर भगवान बहुत प्रसन्न हैं। जब दण्ड न मिले और हम अपराध कर के बच जाएँ तो समझना भगवान हम से नाराज हैं। क्योंकि वे जिससे खुश होते हैं उसको जल्दी सुधार देते हैं। राजा परीक्षित ऐसा सोच ही रहे थे कि उनको सूचना प्राप्त हुई कि ऋषिपुत्र ने उन्हें शाप दिया है, और शाप के अनुसार सातवें दिन तक्षक आकर उन्हें दंश करेगा। राज बहुत प्रसन्न हुए कि भगवान की मेरे ऊपर बड़ी कृपा है। मुझे जो दण्ड मिला है वह तो बहुत कम है, इससे कहीं ज्यादा मिलना चाहिए। देखो, उन्होंने यह नहीं सोचा कि इस शाप की निवृत्ति का क्या उपाय करें? क्या बहुत सारे डॉक्टरों को इकट्ठा करें, जिससे कि तक्षक के काटने पर वे जहर उतारने का इन्जेक्शन दे सकें- इस प्रकार की कोई व्यवस्था करने का विचार भी नहीं आया उनके मन में। प्रत्युत शाप की सूचना सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए। ‘स साधु मेने’[1] बोले, बहुत अच्छा। देखो, सातवें दिन ही (क्योंकि सप्ताह में सात ही दिन होते हैं, कोई भी दिन सातवाँ हो सकता है और उनमें से ही किसी दिन) हम सबको भी मृत्युरूपी सर्प का - कालसर्प का दंश होने वाला है। अतः उसके पूर्व ही अमर तत्त्व को जान लेना चाहिये। राजा परीक्षित ने क्या किया? जैसे ही उनको पता लगा कि शाप मिला है, तो उन्होंने जन्मेजय (जो उनके चार पुत्रों में सबसे बड़ा और इरावती नाम की पत्नी से प्राप्त पुत्र था) को राज्य दे दिया और विरक्त हो गये, क्षण भर में सब कुछ छोड़ दिया। अब यदि कोई परीक्षित की बराबरी करना चाहे तो इन सब बातों में भी करनी चाहिये। हम तो सिर्फ अपराध करने में बराबरी करते रहते हैं। उन्होंने जीवन में सिर्फ एक बार अपराध किया जबकि हम निरन्तर करते ही रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.19.4
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