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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
17.ऊखल-बन्धन-लीला
एक दिन की बात है, यशोदा मैया श्रीकृष्ण के लिए मक्खन निकाल रही थीं। देखो, घर में नौकर-चाकरों की कमी नहीं थी लेकिन श्रीकृष्ण के सारे काम वे स्वयं ही करती हैं। दधिमन्थन करते-करते वे थक गयीं। उनकी वेणी में, जो मालिनी के फूल गुथे हुए थे वे नीचे गिर गये। तब तक भगवान उनके पास पहुँच गये। उन्हें माँ के स्तन का दूध पीना बहुत अच्छा लगता था। जब देखो तब बालकृष्ण मचलते रहते थे। मथानी पकड़ कर बाल कृष्ण ने मैया को मन्थन से रोक दिया और अपने आप उनकी गोद में चढ़ गए। यह देख कर माँ को प्यार आ गया और वे अपने बालक को दूध पिलाने लगीं। और तब हुआ क्या, मालूम है? उधर सामने चूल्हे पर दूध तप रहा था। उसमें उफान आ गया। दूध पीते हुए अभी बालकृष्णन का मन भरा नहीं था, लेकिन माँ का ध्यान उस दूध की ओर चला गया तो उन्होंने बालकृष्णन को गोद से नीचे उतारा और स्वयं दूध को बचाने चली गई। अब भगवान को लगा कि मैं यहाँ बैठा हूँ और ये उस दूध को बचाने के लिए मुझे छोड़कर चली गई? ऐसा सोचकर ‘संजातकोपः’ उन्हें क्रोध आ गया। स्फुरितारुणाधरं संदश्य दद्भिर्दधिमन्थमाजनम्।[1] भगवान के दाँत होठ काटने लगे, पास ही पड़े लोढ़े से दही का मटका फोड़कर वे ‘भित्त्वा मृषाश्रुः’ झूठे अश्रु बहाने लगे। दूध उबल रहा था कि तो उसको बचाने के लिये माँ उठ कर गयी हैं। किसी ने वर्णन किया, वह दूध इसलिए तप रहा था क्योंकि उसे लगा मुझे भी भगवान की प्राप्ति करनी है, मुझे भी भगवान के मुख में थोड़ा स्थान पाना है। लेकिन वह समय जल्दी नहीं आ रहा था, तो उसने सोचा अब तो मैं आत्महत्या करूँगा। इसलिए दूध में उफान आने लगा और वह अग्नि में गिरने लगा। इतने में माँ वहाँ जाती है और उसको रोकती हैं। तब दूध को बुरा लगा कि मैं कैसा पागल हूँ, मैं अपनी ही सोचता हूँ। आत्महत्या की सोचकर मैंने भगवान का दूध पीना छुड़ा दिया। ऐसा सोचकर दूध बैठ गया, लेकिन तब तक काम तो बिगड़ गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.9.6
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