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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
21.अघासुर का उद्धार
अब एक दिन ये खेल रहे हैं। तब ‘दृष्ट्वार्भकान् कृष्णमुखानधासुरः’[1] अधासुर वहाँ आ गया। ‘अघ’ माने पाप। देखो, कंस एक के बाद एक असुरों को भेज रहा था। अघासुर ने देखा कि बच्चे खेल रहे हैं। ‘कंसानुशिष्टः स बकीबकानुजः’[2] यह बकी तथा बक का छोटा भाई है। एक अविधा (बकी) थी, उसका एक भाई था दम्भ (बक) और यह दूसरा भाई है पाप। इसका अर्थ क्या हुआ? जहाँ पर अविद्या हो, दम्भ हो, वहाँ पाप का भी प्रवेश हो ही जाता है। इसको समझने की दूसरी भी दृष्टि बताई गई है कि-ये गोपबाल भगवान श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे, उन्हें अपनी बराबरी का मानकर। अब, यह जीव जब अपने आप को भगवान की बराबरी का मानकर खेलने लग जाता है, तब उसके जीवन में थोड़ा पाप आ जाता हैं। हमारे जीवन की ही बात को यहाँ कथा के रूप में बता रहे हैं। देखिये, रावण ने, हिरण्यकशिपु ने क्या भगवान की बराबरी करने की बात नहीं सोची थी? अतः यहाँ, एक ओर-से तो हमें प्यार से भगवान की लीला देखनी चाहिए और दूसरी ओर-से अपने जीवन में उसका तात्पर्य समझने का, अर्थ ढूँढने का भी प्रयास करना चाहिए। अब अघासुर आया। और जब उसने देखा बच्चे खेल रहे हैं, तो उसने अजगर का रूप धारण कर लिया। वह बहुत बड़ा अजगर बन गया और अपना मुँह फैला कर बैठ गया। उसके मुँह के दोनों भाग गुफा जैसे लगते थे। जब बच्चे आये तो जब बच्चे आये तो उनको वहाँ गुफा दिखाई दी, तो उन्होंने सोचा अन्दर चलकर देखते हैं कि यह कैसी गुफा है।
यह अघासुर खल है। मुँह फैला कर बैठा है। खेल-खेल में सारे-के-सारे बच्चे उसके मुख में प्रवेश कर गए। भगवान ने देखा कि सब-के-सब अन्दर चले गये हैं। अब क्या करें? ऐसा सोचकर वे स्वयं भी अन्दर प्रवेश करते हैं। तब क्या होता है? तब वह अजगर अपना मुँह बंद कर लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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