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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
69.श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद
इसके बाद संक्षेप में एक अध्याय में रुक्मिणी जी तथा श्रीकृष्ण का एक प्रणय कलय वर्णित है। वह उनका प्यार भरा झगड़ा है। देखिये, भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्त की भक्ति पुष्ट करते रहते हैं। भक्ति रस की पुष्टि के लिए संयोग ही पर्याप्त नहीं है। उसके लिए वियोग भी आवश्यक है। वियोग में भजनीय का, प्रिय का स्मरण अधिक बना रहता है। तभी तो भगवान ने गोपियों को उतना दीर्घ वियोग दिया। लेकिन उसी कारण गोपियों का भगवान के साथ निरन्तर संयोग बना रहा। तथापि, रुक्मिणी जी का तो भगवान के प्रति ऐसा प्यार था कि वास्तविक वियोग की बात ही क्या वे तो भगवान का वाचिक वियोग भी नहीं सह सकीं। भगवान ने अपने वचनों से सिर्फ इतना ही कहा था कि ‘तुम किसी श्रेष्ठ क्षत्रिय का वरण करके उसके पास चली जाओ’ तो इतने से ही उनका चेहरा सफेद पड़ गया और भय के कारण वे बेहोश हो गई। भगवान घबरा गये कि छोड़ने का नाम लेने से ही ये इतनी व्याकुल हो गईं। भगवान ने अपनी चारों भुजाओं से उन्हें उठा लिया। फिर उनके अश्रुओं को पोंछते हुए भगवान उनसे कहते हैं, “मैं तो केवल विनोद कर रहा था।” फिर भगवान ने उन्हें समझा-बुझा कर प्रसन्न किया। देखो, रुक्मिणी जी ऐसी थीं। भगवान उन्हें छोड़ देंगे इस विचार से ही वे इतनी व्याकुल हो गईं, ऐसा घनिष्ठ प्रेम था उनका। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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