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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
35.रासलीला की प्रस्तावना
अब अगले पाँच अध्यायों को ‘रासपंचाध्यायी’ कहा जाता है। श्रीमद्भागवत के, विशेष कर दशम स्कन्ध के तो ये पंचप्राणों के समान हैं। श्रीमद्भागवत का यह बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। अतः इसके प्रारम्भ में थोड़ी प्रस्तावना की विशेष आवश्यकता है। द्वैत भाव से तो इस प्रसंग का आनन्द लेना सम्भव ही नहीं है। एक रूप होकर ही इसका आनन्द अनुभव किया जाता है। आखिर हमारे जीवन का परम-लक्ष्य यही रसानुभूति है। देखो, जहाँ रस नहीं आता, हम वहाँ बैठ नहीं सकते, चाहे वह सिनेमा हो या नाटक, सत्संग हो या प्रवचन जो भी कुछ हो। तभी तो ऐसा भी सुनते हैं कि आज कथा में कुछ रस नहीं आया। ऐसा भी कहते-सुनते हैं कि आज खाने में कुछ रस नहीं आया। आखिर हर चीज में हम सब रस को ही तो ढूँढते रहते हैं। यहाँ गोपियों ने रसस्वरूप परमात्मा को चाहा, ढूँढा और उनके साथ नृत्य किया, लीला की, तो उसमें गलत क्या हुआ? बताओ आखिर हम सब भी यही चाहते हैं न? यहाँ पर पहले हमें इसी बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना है। दूसरी बात यह है कि हमें देखना-समझना चाहिए कि भगवान ने यहाँ जो रास लीला की वह कब की? यदि प्रारम्भ से देखें तो भगवान ने शैशव काल में सब से पहले अविद्या रूपी पूतना को और फिर बाल्यकाल में ही अविद्या की जितनी वृत्तियाँ होती हैं उन सब को मारा। आसुरी वृत्तियों को समाप्त करने के बाद उन्होंने सारे देवताओं को यानी दैवी वृत्तियों को भी जीत लिया क्योंकि देखा यही जाता है कि कई बार मनुष्य आसुरी वृत्तियों को तो दूर कर लेता है, लेकिन जब उसमें दैवी गुण आने लगते हैं तो उसको अभिमान होने लगता है। उसे अपनी विद्या-बुद्धि का भी अभिमान हो जाता है। ब्रह्मा जी बुद्धि के देवता हैं। जो वेदान्त की भाषा जानते हों उन्हें यह बात सरलता से समझ में आ जाती है। ‘रसनायाः वरुणः’ रसना के देवता वरुण हैं। पानी का सम्बन्ध रसनेन्द्रिय तथा उपस्थेन्द्रि-जननेन्द्रिय इन दोनों के साथ होता है। असुरों को मारने के बाद, भगवान ने इन सबके अभिमान को भी नष्ट कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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