विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
10.चतुःश्लोकी भागवत
तब भगवान ने ब्रह्माजी को ज्ञान दिया, केवल चार श्लोकों में, इसी को ‘चतुःश्लोकी भागवत’ कहते हैं। इस पर कोई कह सकता है- फिर आपको भी हमें चार ही श्लोक बताने चाहिए। अठारह हजार श्लोकों की क्या आवश्यकता है? बोले, उन्हीं चार श्लोकों को समझने के लिए अठारह हजार श्लोकों की आवश्यकता पड़ती है। अब पहले हम इन्हीं चार श्लोकों पर विचार करेंगे। चतुःश्लोकी में ब्रह्म, माया, जगत तथा ब्रह्म प्राप्ति का साधन, इन्हीं चार विषयों का वर्णन है। तीसरे श्लोक में जगत क्या है यह कहा गया है और- चौथे श्लोक में ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति का साधन कहा गया हैं।
‘अहं एव आसम्’ और ‘आसम एवं अग्रे’। क्या सुन्दर बात है! सृष्टि के पहले केवल मैं ही था। और मैं केवल था। कैसा था, क्या था, कुछ नहीं बस केवल था। ‘था’ शब्द भी इसलिए कहा कि अभी हम जो सृष्टि देख रहे हैं, उसके पहले की बात कह रहे हैं। अन्यथा ‘था’ का भी प्रश्न आता नहीं। केवल मैं ही मै हूँ। अहं एवं- यहाँ ‘अहं’ शब्द से चेतनता प्रकट होती है और ‘इदं’ कहने से जड़ता। तो सबसे पहले ‘मैं’ यानी चैतन्यस्वरूप ही था, और केवल था। ‘न सत्’ माने स्थूल नहीं, ‘न असत’ माने सूक्ष्म नहीं और सत्-असत् के परे यानी अव्यक्त भी नहीं था। केवल ‘मै’ निर्विशेष सत्तामात्र था। भगवान् पहले अकेले थे, सजातीय-विजातीय-स्वगत भेद रहित अकेले ही थे यह तो ठीक है। लेकिन अब सृष्टि बन गयी है, तो लगता है वे अनेक हो गए हैं। बोले - नहीं, जब पहले मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं था, तोइस समय भी, जब मैं ही सर्वरूप बना हुआ हूँ, अब भी दूसरी कोई चीज नहीं हो सकती।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज