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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
9.ध्रुव जी का यक्षों से युद्ध व उन्हें मनु जी की शिक्षा
अब ध्रुवजी राज्य करने लगे। एक बार उनका भाई उत्तम जंगल में गया था। वहाँ कुबेर के सेवक गण यक्षों ने उस पर आक्रमण किया और उसे मार डाला गया। उसके बाद उसकी माँ सुरुचि, जिसने कहा था कि भगवान को प्रसन्न करके मेरे गर्भ में आना, वह भी जंगल की आग में जलकर मर जाती है। देखो, उसका मरण कैसा हुआ। भक्त का अपमान करने के कारण ही यह फल मिला उनको। ध्रुव को जब पता लगा कि यक्षों ने मेरे भाई को मारा है, तो उनको बड़ा क्रोध आ गया। देखो, कभी-कभी भगवद्दर्शन हो जाने के बाद भी पता नहीं कौन-सा सुप्त संस्कार प्रकट हो जाए कुछ कह नहीं सकते। उन्होंने यक्षों की नगरी पर आक्रमण किया और भयानक युद्ध करने लगे। ध्रुव बड़े पराक्रमी थे। यक्ष आदि सब घबरा गये। वे सब ध्रुव के सामने टिक नहीं पा रहे थे। उसी समय स्वायम्भुव मनु यानी इनके दादाजी वहाँ आते हैं और उन्हें रोकते हैं। कहते हैं, ”बेटा तूने इतना तप किया - पाँच साल की आयु में, केवल छः महीनों में तुझे भगवान के दर्शन हुए। फिर तुझे यह राज्य आदि इतना सब प्राप्त हुआ। तब भी इन यक्षों के लिए तुम्हारे मन में इतना वैर भाव आ गया? इन्होंने तुम्हारे एक भाई को मारा उसके लिए तुम इतने सब लोगों को मारते चले जा रहे हो? यह तो कोई बुद्धिमत्ता की बात नहीं हुई। इसलिए अब तुमको युद्ध से निवृत्त होना चाहिए।“ ध्रुवजी ने दादाजी की बात मान ली। बोले आप ठीक कह रहे हैं। मुझे न जाने क्यों इतना क्रोध आ गया। देखो, क्रोध के आवेश में आदमी कहाँ-से-कहाँ चला जाता है। अब वे युद्ध से निवृत्त हो गए। यह देखकर कुबेर भगवान बड़े प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर ध्रुवजी से कहते हैं, ”तुमने अपने बड़े-बूढ़ों की बात मान ली, तुम बड़े समझदार हो। अपने हठ पर अड़े नहीं रहे। तुमने दुराग्रह छोड़ दिया, यह बड़ा अच्छा किया। अब मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुमको क्या वर चाहिए? माँग लो।“ तब ध्रुव जी ने कहा - आप वर दे रहे हैं, परन्तु मुझे अब भक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिये। अतः आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि भगवान के प्रति मेरी भक्ति बनी रहे। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। भगवान कुबेर प्रसन्न होकर उन्हें ऐसा ही वरदान देते हैं। ध्रुवजी वापस लौट आते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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