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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
41.अक्रूर जी की व्रजयात्रा
अक्रूर जी भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति भाव रखते हैं, भगवान भी उन्हें अपने चाचा के समान मानते हैं। ये उनके नाते-रिश्तेवाले ही हैं। बड़ा भारी वंश है। अक्रूर जी की आयु भी काफी बड़ी है। भगवान अब उन्हें भी शुद्ध कर देना चाहते हैं। देखिये, भगवान को ला कौन सकता है? क्रूर तो उन्हें ला नहीं सकता। इसलिए भगवान को मथुरा में लाने के लिए कंस ने अक्रूर को भेजा। पहले उसने कई क्रूर लोगों को भेजा, तो उन सब का संहार हो गया, सब-के-सब नष्ट हो गये। बोले क्रूर लोगों के द्वारा हम भगवान की हानि नहीं कर सकते। क्रूर लोगों के द्वारा भगवान को यहाँ पर ला भी नहीं सकते। इसलिए अब अक्रूर को भेजते हैं, जिससे कि वे प्रेम से उनको यहाँ ला सकें। अक्रूर को तो वे मना नहीं करेंगे। ऐसा सोचकर, अपनी यह कुयोजना अक्रूर जी को सुनाकर कंस उनसे कहता है, “आप नन्द के ग्राम में जाइये और कहिये कि मथुरा में एक बड़े भारी धनुष-यज्ञ का आयोजन किया गया है। आप उसे देखने के लिए चलिए। ऐसा कहकर उन लोगों को श्रीकृष्ण तथा बलराम के साथ यहाँ ले आइये।” यह जानकर कि कंस उन्हें क्यों बुलाना चाहता है, अक्रूर जी को अच्छा तो नहीं लगा। लेकिन वे सोचते हैं, इस बहाने मुझे वृन्दावन जाने को मिलेगा, वहाँ मुझे भगवान का दर्शन होगा। उनको साथ में लाने का सौभाग्य भी प्राप्त होगा। मुझे और क्या चाहिए? वे तो भगवान हैं, शक्तिशाली हैं। वे कंस से डरने वाले नहीं हैं। मुझे भी उससे घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसा सोचकर अक्रूर जी भगवान को लाने के लिए रथ पर चढ़कर मथुरा से वृन्दावन की ओर चल पड़े। रास्ते में अक्रूर जी मनोरथ करते जाते हैं कि मैं उन भगवान का दर्शन करने जा रहा हूँ जो सारी पृथ्वी का भार उतारने के लिए यहाँ आये हैं, जिन्होंने वहाँ नन्दबाबा और यशोदा जी को अपनी बाललीला का सुख दिया, बछड़ों तथा गौओं को भी चराया है। ग्वाल बालों के साथ मिलकर उन्होंने माखनचोरी की लीला की, और भी न जाने कितनी-कितनी लीलायें की हैं। गोपियों के साथ विहार भी किया। उन भगवान का अब मुझे दर्शन होगा। ऐसे मनोरथ करते हुए अब अक्रूर जी जमीन पर देखते जाते हैं कि कहीं पर भगवान के चरण-चिह्न तो दिखाई नहीं देते? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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