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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.रन्तिदेव की करुणा व उदारता
आगे एक बड़े महात्मा राजर्षि हुए। उनका नाम था रन्तिदेव। रन्तिदेव की कथा बड़ी सुन्दर है। उन्होंने सब कुछ छोड़ दिया, निष्किंचन होकर बैठ गये। वे भूखे थे, उनके पास कुछ नहीं था। और जब उनके पास कुछ खाने की वस्तु आयी, तब एक के बाद एक अतिथि आने लगे। वे सब उन सब को कुछ-कुछ देते गये। आखिर में एक अतिथि अपने कुत्तों को साथ ले आया, तो जो कुछ भी बचा था सो उसे दे दिया। फिर एक प्यासा चाण्डाल आया तो उसे पानी भी दे दिया। इस प्रकार रन्तिदेव ने सब कुछ दे दिया। उनका एक प्रसिद्ध श्लोक है जिसमें वे कहते हैं-
‘न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् पराम्’ मैं ईश्वर से बहुत बड़ी गति, सिद्धियाँ, या ऐश्वर्य प्राप्त करना नहीं चाहता। सारे जीव दुःखी हो रहे हैं। मैं उनके हृदय में बैठकर उनका दुःख ले लेना चाहता हूँ जिससे कि उनको दुःख नहीं हो। ऐसे थे रन्तिदेव। वे अपने वंश के बहुत बड़े व्यक्ति हुए, महाभारत हुए। उनके सामने प्रकट होकर भगवान ने उन्हें वर देना चाहा तो भी उन्होंने कुछ नहीं माँगा।
अन्त में उन्होंने अत्यंत भक्तिभाव से भगवान में ही अपना मन लगा दिया और मोहमाया से मुक्त हो गए। इसके बाद यदुवंश का संक्षिप्त वर्णन है। तत् पश्चात्, चौबीसवें अध्याय में विदर्भ वंश का वर्णन है और उसी के साथ नवम स्कन्ध का विषय ‘ईशानुकथा’ समाप्त होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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