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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
76.जरासन्ध का उद्धार
तब, द्वारका से चलते समय उद्धव जी ने जरासन्ध को जीतने का जो उपाय बताया था, उसी के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण भीम तथा अर्जुन को साथ लेकर, ब्राह्मणों का वेश धारण कर जरासन्ध के घर पहुँचते हैं। जरासन्ध का यह नियम था कि प्रतिदिन अपनी पूजा आदि के बाद भोजन के पूर्व, वह अपने अतिथियों की इच्छा पूर्ण करता था। तो अपने नियम के अनुसार जरासन्ध उनसे पूछता है, “आपको क्या चाहिये? आप क्या भिक्षा लेंगे?” बोले, हमें युद्ध की भिक्षा चाहिए। अरे! ब्राह्मण होकर युद्ध करते हो? भगवान ने कहा हम ब्राह्मण नहीं हैं। फिर अपना असली रूप प्रकट करते हुए उन्होंने कहा कि ये भीम हैं, ये अर्जुन हैं और मैं श्रीकृष्ण हूँ। तब जरासन्ध श्रीकृष्ण से कहता है, “तुम तो डरपोक नम्बर एक हो। तुम रणभूमि से भाग गए थे। मैं तुम्हारे साथ युद्ध नहीं करूँगा।” फिर भीम की ओर देख कर वह कहता है, ”यह मेरे काम का है। मैं इसके साथ युद्ध करूँगा।” तब भीमसेन और जरासन्ध दोनों के बीच मल्लयुद्ध होता है। दोनों एक दूसरे से भिड़ जाते हैं। उन दोनों में सत्ताईस दिनों तक युद्ध होता रहा। तब भीमसेन थकने लगे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि अब क्या किया जाए। अतः अट्ठाईसवें दिन भीमसेन भगवान की ओर देखते हैं, मानो वे श्रीकृष्ण से कह रहे हों मैं अपनी शक्ति से जरासन्ध को नहीं जीत पाऊँगा। तब भगवान ने उनमें अपनी शक्ति का संचार किया और फिर एक डाल को बीच से चीर कर दिखाया कि उसको इस तरह से दो भागों में चीर डालो। तभी उसका वध सम्भव है। अन्यथा यह मरने वाला नहीं है। इतना समझते ही अगले ही क्षण भीमसेन ने उसको पृथ्वी पर गिरा दिया और उसके एक पैर पर अपना पैर रख कर दूसरे को पकड़कर चीर डाला। देखो, जरासन्ध दो टुकड़ों के रूप में जन्मा था, उसे जरा नाम की राक्षसी से जोड़ दिया था। अतः उसका वध भगवान के निर्देशानुसार दो भागों में चीर कर ही सम्भव था। अन्यथा उसकी मृत्यु सम्भव नहीं थी। वास्तव में जरासन्ध कर्म बन्धन है, देहाध्यास है। इसका नाश जड़ चेतन विवेक के बिना नहीं हो सकता। यही इस प्रसंग का आध्यात्मिक पक्ष है। जरासन्ध की मृत्यु के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उसके द्वारा बन्दी बनाए गए राजाओं को बन्धन से मुक्त कर दिया। उन्हें धन-सम्पदा भी दिलाई। इसी विजय के साथ दिग्विजय भी पूरी हो गयी। अब भगवान श्रीकृष्ण, भीमसेन तथा अर्जुन पाण्डवों के पास इन्द्रप्रस्थ लौट आते हैं। वे सारे राजा लोग भी भगवान के भक्त बन कर उस यज्ञ में जाते हैं। सभी को प्रसन्नता होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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