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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
5.प्रह्लाद जी पर हिरण्यकशिपु का अत्याचार
अब हिरण्यकशिपु बहुत क्रोधित हो गया। बोला, अब इस लड़के को मार डालना चाहिए। इसका वध कर देना चाहिए। यह मेरे शत्रु की तारीफ करता है। उसका भक्त बनता है। यह सुनते ही सारे राक्षस लोग ‘छिन्धि-भिन्धि’ (मारो-काटो) करते हुए उनको मारने के लिए दौड़ पड़े। वे चुपचाप बैठे हैं। न घबराये, न भागे, न रोये, न चिल्लाये, कुछ नहीं किया। उनके सारे अस्त्र-शस्त्र विफल हो गए। उन सब ने कितने ही प्रकार से प्रह्लाद को मारने का प्रयत्न किया। प्रह्लाद को पर्वत पर ले गए और वहाँ से धक्का दे दिया, परन्तु नीचे बचाने के लिए भगवान खड़े थे, तो वे कैसे मरते। साँप से दंश कराया, विष पिलाया फिर भी वे मरे नहीं। हिरण्यकशिपु की एक बहन थी होलिका। उसको वरदान मिला था कि अग्नि उसको नहीं जला पाएगी। उससे कहा गया कि तुम प्रह्लाद को गोद में लेकर चिता पर बैठो, हम उसमें आग लगा देंगे। देखो, प्रह्लाद तो समर्पित आत्मा है। जो भगवान की गोद में बैठा हो उसको काहे की चिन्ता? वे होलिका की गोद में थोड़े ही थे। भले ही हिरण्यकशिपु ने उनको होलिका की गोद में बिठाया हो, वे तो भगवान की ही गोद में बैठे थे। देखिए, कैसी विस्मयकारी बात है कि होलिका का वरदान मिथ्या हो गया। वह आग में जलकर मर गयी, प्रह्लाद ज्यों-के-त्यों रहे। इसलिए होलिका दहन किया जाता है। यही होलिका का दहन है। आध्यात्मिक शक्ति को समाप्त करने का कोई कितना ही प्रयास कर ले, वह समाप्त नहीं होती। कितने-कितने साम्राज्य आए और चले गए, वे क्या कभी आध्यात्मिक शक्ति को समाप्त कर पाए? नहीं! भौतिक शक्ति वाले स्वयं खत्म हो गए। तात्पर्य यह है कि आत्मशक्ति को कोई खत्म नहीं कर सकता। प्रह्लाद मरते ही नहीं, ये देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ा भय लगने लगा। गुरुपुत्रों ने अपनी शक्ति से एक कृत्या का निर्माण किया, उनको मारने के लिए। वह जब उनको मारने के लिए आयी, तो सूँ-सूँ करता हुआ भगवान का सुदर्शन चक्र भी वहाँ आया, और उसने कृत्या राक्षसी का सिर काट दिया और उसके बाद शण्डामर्क का भी सिर काट दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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