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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
1.परीक्षित के प्रश्न का उत्तर
इसलिए हे परीक्षित, यदि अभय अवस्था को प्राप्त करना है, तो जो सर्वात्मा भगवान ईश्वर है, जिनको हरि भी कहते हैं, उन भगवान के नाम, रूप, गुण, कथा, लीला आदि का श्रवण करना चाहिए। कीर्तन भी उन्हीं का करना चहिए। स्मरण भी उनका ही करना चाहिए। परन्तु यदि जैसे हैं वैसे ही पड़े रहना हों, तब तो कुछ करने की जरूरत नहीं है। मूर्खता पूर्ण जीवन जीते रहें, तो दुःख बना ही रहेगा, लेकिन अभय की प्राप्ति करनी हो, पूर्ण आनन्द प्राप्त करना हो, तब तो भगवान का ही श्रवण, कीर्तन, स्मरण करते रहना चाहिए।
हम सब जो ज्ञानार्जन, योग, स्वधर्माचरण आदि करते रहते हैं, उसका सच्चा लाभ क्या है? उसका रहस्य किसमें छिपा हुआ है? बोले- जीवन का सबसे बड़ा लाभ इसी में है कि मरण के समय भगवान का स्मरण बना रहे। यही वह कारण है कि जब जटायु का अन्त समय आया और भगवान ने कहा कि तुम देह धारण किये रहो, तो वे बोले कि महाराज, अन्तकाल में जिनके नाम का स्मरण हो जाने मात्र से मुक्ति मिल जाती है, वे स्वयं साकार रूप में मेरे सामने उपस्थित हैं, दृश्यमान हैं। अब इस देह को धारण करके मै क्या करूँगा? जन्मलाभ तो इतना ही है कि ‘अन्ते नारायणस्मृतिः’ अन्तकाल में नारायण का स्मरण हो जाए। वैसे स्मृति तो परोक्ष की होती है। जो प्रत्यक्ष है, उसकी स्मृति की भी क्या आवश्यकता है। यहाँ तो भगवान सामने खड़े हैं। उनको याद करने की भी जरूरत नहीं। यही तो जन्म लाभ है। अब में देह धारण करके क्या करूँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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