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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
6.पुराणों में उत्तर देने की विशेष शैली
हमारे पुराणों की एक अपनी ही शैली है। कोई श्रोता जब किसी वक्ता से प्रश्न पूछता है, तो वक्ता उसका सीधा उत्तर नहीं देता। वह सदा यही कहता है कि ऐसा ही प्रश्न पहले अमुक व्यक्ति ने अमुक से पूछा था। हमें लगता है, यह सब बताने की क्या जरूरत है? आपसे प्रश्न पूछा है, तो आप उत्तर दे दीजिए। देखो, पहले किसने किससे प्रश्न पूछा था, यह वर्णन बड़ा ही सप्रयोजन है, बड़े काम की बात है। होता यह है कि कभी-कभी प्रश्नकर्ता को लगता है। कि मैं बड़ा बुद्धिमान हूँ। मैंने अपूर्व प्रश्न पूछा है। बोले, यह प्रश्न पहली बार नही पूछा गया है, पहले भी पूछा जा चुका है, अतः तुमको अभिमान करने की कोई बात नहीं है। कभी-कभी वक्ता के साथ भी ऐसा हो सकता है। वक्ता को भी लगता रहता है कि मैंने इस प्रश्न का बड़ा सटीक और मौलिक उत्तर दिया। तो, इसलिए यहाँ कहते हैं यह प्रश्न भी पहले पूछा जा चुका है और उसका उत्तर भी दिया जा चुका है। आप कोई बहुत बड़ी या नई बात बताने नहीं जा रहे हैं, आपने अभी ज्यादा पड़ा-सुना नहीं है। जब कहीं किसी सद्ग्रंथ में वही बात पड़ने में आ जाती है, तो उस प्रश्न का उत्तर वहाँ ठीक उसी प्रकार से लिखा हुआ मिल जाता है। हमको यो हीं लगता रहता है मैंने ही ऐसा सोचा। तुमने क्यों सोचा? ऐसा पहले ही सोचा जा चुका है। तो इससे बोलने वाले को भी अभिमान नही होता। आज कल ‘मौलिक बात’, Origingal thought पर जोर देते हैं। तुम क्या Original हो? सब-के-सब कार्बन कापीज़ ही हो। मौलिक तो सिर्फ भगवान् हैं। बाकी सब कापीज़ हैं। इसलिए अभिमान नहीं करना। तो इस शैली का प्रयोजन यही है कि श्रोता, वक्ता दोनों को ही अभिमान न हो। दूसरी बात, जब पूर्व-पूर्व के लोगों के बारे में ऐसा बताया जाता है, तो हमारा अहंकार लीन हो जाता है, शान्त हो जाता है। पहले भी ऐसी बात हो चुकी थी, ऐसा जान लेने पर, इस ज्ञान का और ज्ञान की इस परम्परा का बल भी हमें प्राप्त हो जाता है। कई बार हमारे मन में कोई विचार आता है, तो उसे किसी को बताने का साहस ही नहीं होता। लेकिन यदि यह ज्ञान हो जाए कि वेदव्यासजी ने भी ऐसा कहा था, तो एक प्रकार का बल प्राप्त होता। है इसलिए व्यवहार मे देखा जाता है कि किसी को कुछ कहना हो, तो वह कहता है कि अमुक ने भी ऐसा कहा था। यदि वह कहे कि यह मेरी अपनी बात है, तो दूसरे कहेंगे- रखो अपनी बात अपने पास। कहने का अर्थ है, परम्परा का बल बहुत बड़़ा होता है। एक बात और है कि इससे हमें अपने ज्ञानी पूर्वजों का परिचय भी प्राप्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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