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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
8.श्रीकृष्ण को लेकर वसुदेव जी का गोकुल जाना
वसुदेव देवकी दोनों के देखते-ही-देखते भगवान प्राकृत शिशु के समान बन गए। फिर वे वसुदेवजी से कहते हैं- जल्दी से मुझे एक टोकरी में रखो और यहाँ से गोकुल ले चलो। देखो ‘गोकुल’ शब्द कितना अच्छा हो। गोकुल का अर्थ होता है जहाँ गायों का ही परिवार हो। भगवान का गोत्र तो बड़ा दुर्गम है। सारी जाति-नीति, कुल-गोत्र और वर्णश्रम के परे होते हुए भी वे क्षत्रिय वंश में आए और उसके बाद गोकुल में, वैश्य कुल में गए।
नन्द आदि सारे गोप वैश्य हैं। अब देखो, भगवान क्षत्रिय हैं, वैश्य हैं कि ब्राह्मण हैं- क्या हैं? वामनावतार में वे ब्रह्मण के रूप में आए थे, यहाँ क्षत्रिय के रूप में आते हैं और फिर वैश्य परिवार में चले जाते हैं। यहाँ दूसरी बात है कि वे वसुदेव-देवकी के पुत्र हैं, लेकिन बाल-लीला का सुख तो उन्होंने यशोदा और नन्द जी को ही दिया। इससे भगवान क्या जताना चाह रहे हैं? यही कि भाव से जो मुझे अपना पुत्र मान लेते हैं, बस मैं उन्हीं का पुत्र बन जाऊँगा। तो किसी को यह सोचने की जरूरत नहीं है कि मुझे कब ऐसा अवसर मिलेगा जब भगवान मेरे पुत्र बनकर आयेंगे? अरे! बनेंगे क्या, आप प्यार से अभी उनको पुत्र के जैसा मान लो, तो वे आ जायेंगे। आपके सामने बैठकर आपसे भी मक्खन माँगेंगे। आज भी आप कर के देखो, होता है कि नहीं। कहने का तात्पर्य यही है कि जो उनके प्रकाट्य के निमित्त बनते हैं, उनके पुत्र तो भगवान बनते ही हैं, लेकिन जो भाव से मानने वाले हैं, उनके भी पुत्र बनते हैं। ‘गोकुल’ का दूसरा अर्थ होता है इन्द्रियों का परिवार। ‘गो’ माने इन्द्रियाँ, इस दृष्टि से इन्द्रियों के परिवार को गोकुल कहते हैं। भगवान के अवतार लेने का अर्थ है कि वे देह, इन्द्रिय, प्राण तथा बुद्धि के संघात में आ जाते हैं। प्रायः कहा जाता है कि भगवान देह, इन्द्रिय, मन बुद्धि के परे हैं? क्या वे इनमें नहीं है? भगवान कहते हैं, मैं इनके परे हूँ, बाहर हूँ तो इनके अन्दर कौन हैं? शैतान है क्या? तुम्हारी इन्द्रियों में कौन बैठा हुआ है? तुम्हारे मन में कौन बैठा हुआ है? ‘अत्रैव सन्त्वात्मनि धी गुहायाम्’।[2] विवेक चूड़ामणि में कहा गया है कि वे तो हमारे ही भीतर, बुद्धि गुहा में स्थित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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