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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.प्रह्लाद-चरित्र
पहले प्रह्लाद शब्द के अर्थ को समझ लें। प्रह्लाद - ‘ह्लाद’ माने आनन्द। तो प्रह्लाद शब्द का अर्थ हुआ जो आनन्द में रहता है वह प्रह्लाद। ‘प्रकृष्टः ह्लादः यस्य’ जिसका आनन्द बहुत ऊँचे प्रकार का है बड़ा श्रेष्ठ है, (He who enjoys exalted bliss.) उसको प्रह्लाद कहते हैं। ‘प्रकर्षेण ह्मदयति’ दूसरों को जो आनन्दित करता है उसे प्रह्लाद कहते हैं। जो स्वयं आनन्द स्वरूप है, दूसरों को आनन्दित करता है, वह प्रह्लाद। प्रह्लाद में कैसे-कैसे गुण थे? ‘ब्रह्मण्यः’ - वे ब्राह्मणों का सम्मान करने वाले थे, ‘शील सम्पन्नः’ उनका शील बहुत ही ऊँचे स्तर का था। अर्थात उनका चरित्र, व्यवहार, भाव सब श्रेष्ठ थे। ‘सत्यसन्धः’ वे जो वाक्य बोलते सत्य ही बोलते, किसी को जो वचन देते उसे अवश्य पूर्ण करते, ‘जितेन्द्रियः’ अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम प्राप्त कर लिया था, ‘आत्मवत् सर्वभूतानां एकः प्रियसुहृत्तमः’ जैसे वे स्वयं को देखते वैसे ही अन्य सभी प्राणियों को देखते थे। इसी कारण वे सभी प्राणियों के प्रिय बन गये थे। ‘दासवत्संनतर्याड्घ्निः’ ‘आर्य’ यानी श्रेष्ठ पुरुषों के सामने वे दास भाव से खड़े रहते थे। ‘भ्रातृवत् सदृशे स्निग्धः’ अपनी बराबरी के लोगों के साथ वे भाई के जैसा व्यवहार करते और ‘गुरुषु ईश्वरभावनः’ गुरु भगवान हैं, ऐसा मानते थे। अर्थात गुरु को कभी मनुष्य नहीं मानते थे। ऐसे उनके गुण थे।
विद्या में, रूप में, अर्थ में, सब में ऊँचे स्तर के थे लेकिन उनमें लेश मात्र भी अभिमान नहीं था।
किसी प्रकार का व्यसन-संकट, या कष्ट का प्रसंग आ जाए तो भी घबराते नहीं थे। उनको किसी वस्तु में कभी स्पृहा, आसक्ति, लालसा नहीं थी। चाहे वह देखी हुई चीज हो या अनदेखी चीज हो, ज्ञात अज्ञात सभी से विरक्त थे। ‘प्रशान्तकामो रहितासुरोऽसुरः’[3] असुर जाति में जन्म लेकर भी असुरों का एक भी लक्षण उनमें नहीं था। यह नारद जी की कृपा है, संत की कृपा है। प्रह्लाद के गुणों का जितना वर्णन किया जाए कम ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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