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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.प्रह्लाद-चरित्र
भगवान वासुदेव में तो उनका सहज, सरल, नैसर्गिक प्रेम था। उन्हें भगवान में मन लगाने का प्रयत्न ही नहीं करना पड़ता था। उनका मन वहाँ से हटता ही नहीं था, सत्य तो यही है। बचपन में भी दूसरे खेलों में उनका मन कभी लगता नहीं था।
लोग जैसे ग्रहों से पीड़ित होते हैं, जैसे उन्हें भूत पकड़ लेता है, उसी प्रकार मानो उन्हें (प्रह्लादजी को) कृष्ण भगवान ने पकड़ लिया हो। उन्हें जगत् का भान ही नहीं रहता था। बैठे हुए, सोते हुए, चलते हुए, जब देखो तब गोविन्द-गोविन्द, हरि-हरि इस प्रकार भगवान का नाम स्मरण करते थे और ‘क्वचिद्रुदति’ भगवान का स्मरण करते हुए कोई लीला याद आती तो रोने लगते थे। ‘क्रचिद् हसति’ कभी एकदम भगवान की हँसी याद आती तो हँसने लगते थे। कभी आनन्दित हो जाते थे, कभी गाने लग जाते थे, कभी नृत्य करने लग जाते थे, कभी नाचते-नाचते एकदम से बैठ जाते और स्तब्ध हो जाते थे। उनको ऐसी परा निवृत्ति प्राप्त हो जाती थी।
संतो के साथ रहने से ही उनको ऐसी दुर्लभ, निर्मल भक्ति प्राप्त हो गई थी। ऐसे प्रह्लाद से हिरण्यकशिपु द्वेष करने लगा, ऐसा सुनकर युधिष्ठिर को आश्चर्य हुआ। युधिष्ठिर के मन में प्रश्न आया कि ऐसे सुंदर और गुणवान बालक से हिरण्यकशिपु द्वेष क्यों करने लगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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