विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
31.सांख्ययोग
अगले अध्याय में भगवान सांख्ययोग का वर्णन करते हैं। इसका किञ्चित् वर्णन हम पहले भी देख चुके हैं। सांख्य योग का क्या तात्पर्य है। यह नानाविध सृष्टि परमात्मा से किस प्रकार प्रकट होती है यह जानकर उसी एक परमात्मा को सबमें देखना ही सांख्ययोग है।
परमात्मा से ही पहले अव्यक्त, फिर सूक्ष्म और फिर स्थूल जगत का आविर्भाव हुआ है। इसी स्थूल जगत को ध्यानाभ्यास के द्वार फिर से भगवान में विलीन कर देना ही सांख्ययोग है। इन्द्रियों को मन में, मन को बुद्धि में और बुद्धि को आत्मा में लीन किया जा सकता है, परन्तु आत्मा को किसमें लीन किया जाए? आत्मा को किसी में लीन नहीं कर सकते, अपितु उसमें ही सब लीन हो जाते हैं। वह स्वतः, ज्यों-का-त्यों रहता है। परमात्मा से सृष्टि जिस प्रकार प्रकट हुई है, उसे उसी पिछले क्रम से परमात्मा में ही विलीन करना सांख्य योग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.24.27
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |