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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.ऋषभदेव का अपने पुत्रों को उपदेश
अब यहाँ पहले ऋषभदेव का चरित्र देखेंगे। ऋषभदेव एक बार अपने पुत्रों को लेकर घूमते-घूमते ब्रह्मावर्त पहुँचे। वहाँ सारे ऋषियों की सभा लगी थी। वहीं पर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को उपदेश दिया। उसे सभी माताओं और पिताओं को सुनना चाहिए। जिससे कि उन्हें ज्ञात हो कि अपने बच्चों को किस प्रकार उपदेश दें।
ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को भरी सभा में उपदेश दिया, अकेले में नहीं। बड़े-बड़े महापुरुष जहाँ पर विराजमान थे, उस सभा में उपदेश दिया। इसका अर्थ क्या हुआ मालूम है? सारी सभा को भी मालूम पड़ जाए कि इनके पिता ने इन्हें क्या उपदेश दिया है। तब, यदि बाद में बेटे कुछ गड़बड़ करें तो दूसरे लोग उन से कह सकते हैं कि ऐसा करना ठीक नहीं है। तुम सब को तो तुम्हारे पिता ने जो उपदेश दिया था उसे हमने भी सुना था। अब देखो, पिता ने उन्हें क्या उपदेश दिया था? यह अध्याय बहुत ही सुन्दर है। यहाँ प्रारम्भ में ही बड़ी ऊँची - सर्वश्रेष्ठ सबसे बड़ी बात कही गई है।
यह देह केवल भोग करने के लिए नहीं है। यह (देह) तो बाद में कीड़े-मकोड़े के लिये भक्ष्य पदार्थ बन जाता है। इसलिए जीवन में कर्म ऐसे करने चाहिए कि मन विशुद्ध हो जाये और अनन्त सुख - जो ब्रह्म सुख कहलाता है वह प्राप्त हो जाए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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