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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
8.देवासुर-संग्राम
अब देवता लोग अमृत पी कर शक्तिशाली हो गए। असुर देखते ही रह गए। देवताओं को अमृत मिल गया- यह तो बड़ी गड़बड़ बात हो गई, ऐसा सोचकर वे सब बड़े क्रोधित हुए। बोले ये लोग बहुत धोखेबाज हैं। देखो, पहले ये असुर स्वयं धोखेबाज बन रहे थे। परिश्रम तो दोनों ने ही किया था। जब अमृत निकला तब उनके मन में बेईमानी आ गई थी। अब उसी अमृत की प्राप्ति में देवताओं को सफल देखकर दैत्यों को बड़ा ही दुःख हुआ, क्रोध आया और वे घोर युद्ध करने लगे। एक बार तो वे ऐसा भयंकर युद्ध करने लगे कि अमृत पीने के बाद भी देवता लोग जीत नहीं पा रहे थे। अपने आप को दुर्बल पाकर वे सब घबरा गए। तब उन्होंने फिर से भगवान की आराधना की। भगवान वहाँ प्रकट हुए और उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से असुरों की माया को सहज ही में दूर कर दिया। जैसे कोई स्वप्न से जागता है, तो स्वप्न प्रपश अनायास समाप्त होता है, वैसे ही भगवान के ज्ञानरूपी चक्र से अज्ञान रूपी मोह खत्म हो गया। अब माया तो समाप्त हो गई लेकिन असुरों ने युद्ध समाप्त नहीं किया। असुर और देवताओं का युद्ध चलता रहा। फिर इन्द्र देव ने वज्र उठाया। राजा बलि को सामने आते देख वे उनसे कहते हैं- अब तो तुम मेरी पकड़ में आ गए हो। मैं तुमको नहीं छोडूँगा। तुम्हारा सिर काटे बिना नहीं रहूँगा। तो राजा बलि ने कहा, “इन्द्र! व्यर्थ में प्रलाप मत कर। दो दिन पहले तुम रो रहे थे। जगत् में, इस जीवन में सफलता-असफलता हमारे हाथ में नहीं होती। ये भगवान के हाथ में होती है। कभी कोई सफल होता है तो कभी कोई और सफल होता है। यह हार-जीत आदि कोई ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं होते। कभी मेरी जीत होती है तो कभी तुम्हारी होती हैं। चलो, लड़ाई करो।” देखो, राजा बलि बड़े समझदार थे। युद्ध में जब इन्द्र ने अपने वज्र से बलि को मार गिराया, तब देवता लोग दूसरे सभी असुरों को मारने लगे। ब्रह्माजी का आदेश पा कर नारद मुनि वहाँ आए। इस बार वे असुरों की ओर से आए और देवताओं को दैत्य संहार के विरत किया। फिर वे देवताओं से कहते हैं, “तुम सबने अमृत पी लिया है, लक्ष्मी जी की कृपा दृष्टि भी प्राप्त कर ली है, चलो अब युद्ध करना बंद करो।” युद्ध बंद हो गया। नारद मुनि के कहने पर राजा बलि के देह को उठाकर असुर उसे उनके गुरु शुक्राचार्य के पास ले गए। उनके पास संजीवनी विद्या थी। उस विद्या से उन्होंने सभी घायल असुरों को पुनः जीवित कर दिया। उनके स्पर्श से बलि की पूर्व स्मृति लौट आई और उसकी इन्द्रियाँ सचेत हो गई। इसके साथ यह अध्याय समाप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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