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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
60.रुक्मिणी जी का अपहरण
भगवान श्रीकृष्ण जब विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर पहुँच गए, तब राजा भीष्मक ने उनका तथा बलराम जी का बड़े आदरपूर्वक स्वागत किया। यद्यपि, वे समझ नहीं पा रहे थे कि श्रीकृष्ण-बलराम को निमन्त्रण किसने भेजा है, तथापि राजा भीष्मक ने श्रीकृष्ण बलराम जी का यथोचित स्वागत किया क्योंकि वे भक्त थे। उधर शिशुपाल आदि सब बड़े प्रसन्न थे। शिशुपाल समझ रहा था कि रुक्मिणी का विवाह मेरे ही साथ होगा क्योंकि रुक्मिणी का भाई रुक्मी तथा पिता भीष्मक दोनों मेरे साथ हैं। वैसे, रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ ही हो, इसमें राजा भीष्मक का कोई विशेष आग्रह नहीं था। परन्तु उनका लड़का रुक्मी जो ज्यादा शक्तिशाली था, वह श्रीकृष्ण से बहुत द्वेष करता था। यह जानते हुये भी कि रुक्मिणी श्रीकृष्ण को ही चाहती हैं, वह रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण की जगह शिशुपाल से ही कराना चाहता था। अतः रुक्मिणी के साथ अपना विवाह निश्चित मानकर शिशुपाल प्रतीक्षा कर रहा था। निर्धारित समय पर पूर्व परम्परा के अनुसार रुक्मिणी जी देवी के मन्दिर में पूजा करने जाती हैं। पूजन के पश्चात्, जब वे वहाँ से लौट रही थीं, तब सबके देखते-देखते ही भगवान बड़ी तेजी से वहाँ पहुँचते हैं। रुक्मिणी जी तो पहले से ही तैयार थीं, सो भगवान ने उन्हें उठाकर अपने रथ पर बैठा लिया और वहाँ से चल दिये। यह सब इतनी तेजी से हुआ कि दूसरे सब देखते ही रह गये। परन्तु जैसे ही वहाँ उपस्थित राजाओं को स्थिति का भान हुआ, तो वे सभी क्रोधित होकर श्रीकृष्ण के पीछे चल पड़े। तब बलराम जी सहित यदुवंशी सेना ने शत्रु राजाओं की सेना को नष्ट कर दिया। जरासन्ध आदि राजा युद्ध से भागकर लौट आये। लौटकर उन सबने देखा कि शिशुपाल हतोत्साहित होकर अत्यंत निराश हो गया है। उसकी दशा देखकर जरासन्ध आदि उसे समझाने लगे कि अब क्या किया जाए! जो भाग्य में लिखा होता है, वही होता है। इस प्रकार उसे समझाकर शिशुपाल सहित वे सब अपने-अपने स्थान पर लौट गए। लेकिन रुक्मी को बड़ा गुस्सा आया। वह कहने लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा कहते हुये अपनी सेना लेकर वह श्रीकृष्ण के पीछे चल पड़ा। निकट पहुँच ही गया। दोनों में लड़ाई होने लगी और जब भगवान् ने देखा कि रुक्मी उन पर वार करने जा रहा है, तब भगवान् ने उसे मार ही देना चाहा। यह देखकर रुक्मिणी जी घबरा गई। उन्होंने, अपने भाई रुक्मी को छोड़ देने के लिए भगवान् से प्रार्थना की तो भगवान् ने उसे छोड़ दिया। लेकिन फिर भी जब रुक्मी ने भगवान् का अनिष्ट करना चाहा तो भगवान् ने उसे विद्रूप करके बाँध दिया। तब तक बलराम जी तथा अन्य यदुवंशी भी वहाँ पहुँच गए। बलराम जी ने रुक्मी को उस दशा में देखा तो उन्हें उस पर दया आयी। उसका बन्धन खोलकर उन्होंने उसे छोड़ दिया और श्रीकृष्ण से कहा कि यह तुमने अच्छा नहीं किया, लेकिन उन्होंने रुक्मिणी जी को समझाकर शान्त किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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