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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
20.सत्संग की महिमा
इसके बाद अब भगवान सत्संग की महिमा को प्रगट करते हैं। कहते हैं, ”तुम्हारे मन में जब भी ऐसा कोई प्रश्न उठे, तो तुम सत्संग करो, संतों का संग करो, और देखो कि साधु पुरुष किस प्रकार रहते हैं, और कैसा वर्ताव करते हैं। यही श्रेष्ठतम भक्ति है। साथ ही वे (साधु पुरुष) जैसा कहें वैसा करना भी श्रेष्ठ भक्ति है।“ भक्ति का वर्णन करते हुए, मूर्ति पूजन, मूर्ति तथा भक्त दर्शन, उनकी सेवा, उनकी मूर्ति की स्थापना, उत्सव मनाना आदि के अतिरिक्त यहाँ एक और अच्छी बात कही गयी है। भगवान कहते हैं -
भक्त को चाहिए कि जो कुछ उसे अत्यन्त प्रिय लगे उसे वह मुझे (भगवान को) अर्पित कर दे। इसीलिए किसी-किसी तीर्थ में यह प्रथा देखी जाती है कि वहाँ जाकर भक्त अपनी किसी प्रिय वस्तु को छोड़ आते हैं। कभी-कभी लोग तीर्थ में जाकर कद्दू या करेला छोड़ आते हैं। उनसे कोई कहे कि अच्छा तुम्हें कद्दू इतना प्रिय था? तो वे कहते हैं नहीं, मैं तो उसे कभी खाता ही नहीं था। खाता ही नहीं था? जो प्रिय नहीं था तुमने उसे छोड़ दिया? इस प्रकार नहीं! अपनी प्रिय वस्तु को भगवान को अर्पित करनी चाहिए।
इस अध्याय के अन्त में भगवान कहते हैं - तुम श्रेष्ठ भक्ति और साधु पुरुष के बारे में जानना चाहते हो, तो इस बात को ध्यान से सुनो। मेरे मत में सत्संग और भक्ति योग के समान दूसरा कोई उपाय नहीं है जिससे तुम्हें सारा रहस्य समझ में आ जाये। योग, सांख्य, जप और स्वाध्याय, त्याग, इष्टापूर्त, व्रत, तीर्थ आदि, मुझे भक्ति तथा सत्संग के समान प्रसन्न नहीं करते। उन सब की अपेक्षा सत्संग से मेरी प्राप्ति अतिशीघ्र और बड़ी सरलता से हो जाती है। सत्संग शनैः-शनैः मन का दुःसंग दूर कर देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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