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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
1.अम्बरीष-चरित्र
एकादशी का व्रत दशमी के दिन से प्रारम्भ होता है। दशमी के दिन एक बार खाया जाता है, एकादशी के दिन पूरा उपवास और द्वादशी के दिन भी एक ही बार खाना होता है। एकादशी इसलिए कि हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच कर्मेन्द्रियाँ और एक मन, ये ग्यारह उपाधियाँ ही हमको बिगाड़ती रहती है। अतः इन्हें संयमित करने की आवश्यकता रहती है। इसीलिए एकादशी के दिन उपवास का विधान है। तो एकादशी का अर्थ होता है इन ग्यारह उपाधियों के ऊपर पूर्ण संयम और उपवास का अर्थ होता है भगवान के पास बैठना-मौन रहना। हमारी एकादशी कैसी होती है- ‘एकादशी दुप्पट खाशी तरी म्हणे भी उपाशी’। एकादशी के दिन दुगुना खाना और फिर भी कहना कि मैं भूखा हूँ। एकादशी ऐसे नहीं होती। एकादशी के दिन निराहार रहने का तात्पर्य केवल मुख से भोजन नहीं करना, इतना ही नहीं है। उस दिन अन्य इन्द्रियों नाक, कान आदि को भी अपने विषयों से हटा कर भगवान में ही लगना चाहिए। जो लोग व्रत के दिन यह सोचते हैं कि भूख लगती है इसलिए चलो सिनेमा देखने चलें या फिर ताश खेलें, वे लोग व्रक का प्रयोजन ही खत्म कर डालते हैं। यह धर्म नहीं धर्म के साथ छल करना है। एक समय की बात है। राजा अम्बरीष व्रतस्थ थे और द्वादशी के दिन पूजा आदि कर चुके थे, अब उन्हें व्रत छोड़ना है। उसी समय दुर्वासा ऋषि अतिथि बनकर आते हैं और कहते हैं कि मैं अभी स्नान करके आता हूँ। वे स्नान करने चले जाते हैं और फिर जल्दी लौटते नहीं। इधर अम्बरीष का व्रत तोड़ने का मुहूर्त टलता जा रहा था। उसी मुहूर्त में पूजा करके अन्न ग्रहण करने से उपवास पूर्ण होता है। अब लम्बे समय तक दुर्वासा जी लौट कर नहीं आये तो राजा ने दूसरे ब्राह्मणों से पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए। मुहूर्त टल जाता है तो व्रत पूरा नहीं होता है और यदि ऋषि के आने के पूर्व ही मैं खा लेता हूँ तो अतिथि का अपमान होता है। इस धर्मसंकट के समय मुझे क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा, “तुम केवल जल का आचमन कर लो तो तुम्हारा व्रत पूरा हो जायेगा। फिर जब ऋषि लौट आयें, तो उन्हें खिलाने के पश्चात् तुम खा लेना।” राजा ने वही किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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