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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
चतुर्थ स्कन्ध
इस महापुराण में सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति, आश्रय इन दस चीजों का वर्णन किया है। प्रथम स्कन्ध अधिकारी स्कन्ध कहलाता है। दूसरा - साधन स्कन्ध और तीसरे स्कन्ध में सर्ग का निरूपण किया गया। वहाँ सर्ग के द्वारा भगवान का ही निर्देश किया गया। अब विसर्ग अर्थात पुरुष के द्वारा बनायी गयी सृष्टि का वर्णन आता है। इस चौथे स्कन्ध में धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का सम्यक् वर्णन किया गया है। अर्थ तथा काम का प्रयोजन क्या है? यह हम देख चुके हैं। यहाँ प्रारम्भ के कुछ अध्यायों में धर्म का विचार किया गया है, फिर किन्हीं अध्यायों में अर्थ का, फिर काम का और अन्त में मोक्ष का। सबमें यही बताया गया कि जो धर्मपालन ईश्वर की पूजा के लिए किया गया हो, वह तो मोक्ष देने वाला होता है, क्योंकि वह हमारे अन्तःकरण को शुद्ध करता है। और यदि धर्मपालन के द्वारा ईश्वर की पूजा नहीं की गयी हो, तब भले ही वह कितना ही बड़ा यज्ञ-याग आदि क्यों न हो, वह सफल नहीं होता, सार्थक नहीं होता है, इतना ही नहीं, उस प्रकार के यज्ञ (जिसमें भगवान की आराधना का भाव न हो) करने वाले का तो नाश ही हो जाता है, ऐसा यहाँ कहा गया है। इसी प्रकार यहाँ अर्थ पुरुषार्थ का भी वर्णन किया गया है। पहले भले ही व्यक्ति के मन में धर्म कार्य से अर्थ प्राप्ति की ही इच्छा हो, लेकिन अर्थ प्राप्ति के बाद, भगवान में मन लगना चाहिए। जीवन में किसी प्रकार की कमी हो, तो प्रारम्भिक दशा में हम पैसे आदि के लिए भी भगवान के पास जा सकते हैं, उसमें कोई दोष नहीं है। लेकिन पैसा या वह चीज मिल जाने के बाद भगवान को भूल जाएँ, तो वह बहुत बड़ा दोष है। अर्थ प्राप्ति हो जाने के पश्चात् उसकी समाप्ति भगवद भक्ति में होनी चाहिए। इसी प्रकार काम पुरुषार्थ के प्रसंग को भी समझना चाहिए। और मोक्ष की पूर्णता भी भगवद्भक्ति में ही होती है। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का यहाँ वर्णन किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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