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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
59.रुक्मिणी जी का संदेश व उसका रहस्य
रुक्मिणी जी का गुह्य संदेश सुनाकर ब्राह्मण देवता ने कहा, “अब आप इस पर विचार करके जैसा करना हो शीघ्र कीजिए।” भगवान श्रीकृष्ण ने जब ब्राह्मण के द्वारा रुक्मिणी जी के संदेश सुने तो उनका हृदय द्रवित हो गया। कहते हैं, “मैंने भी उनकी प्रशंसा सुनी है, मैं अवश्य आऊँगा। राजा भीष्मक ने बुलाया नहीं तो क्या हुआ? जिसका विवाह होना है स्वयं उसने ही बुला लिया है तो फिर सोचना क्या है?” ऐसा निश्चय करके फिर भगवान ने सोचा कि स्वयंवर में पहुँचने के लिए इसी समय यहाँ से चलना होगा। अतः अपने सारथी दारुक को बुलवाकर, उस ब्राह्मण के साथ भगवान अकेले ही विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिनपुर की ओर चल पड़े। जब बलराम जी को इस बात की सूचना मिली तो उन्हें लगा कि श्रीकृष्ण अकेले चले तो गये हैं, लेकिन वहाँ युद्ध अवश्य होगा। रुक्मी के जो अन्य मित्र जरासन्ध, दन्तवक्त्र, शाल्व आदि हैं, वे सब क्या देखते रह जायेंगे? वे सब क्या चुपचाप सब सह लेंगे? ऐसा नहीं होगा। ऐसा विचार करके बलराम जी अन्य यदुवंशियों को भी साथ लेकर श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गए। देखो, कितना ध्यान रखते हैं अपने छोटे भाई का। तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयंवर स्थल कुण्डिनपुर पहुँच गए। रुक्मिणी जी ने पहले ही (पत्र में) उन्हें बता दिया था कि कैसे-कैसे वे देवी की पूजा करने के लिए जाएँगी और वहाँ से लौटते समय श्रीकृष्ण उनका अपहरण कर के ले जाएँ। यह सब सुनकर आजकल की लड़कियाँ कह सकती हैं कि फिर हम भी यदि ऐसा कुछ करें, तो उसमें गलत क्या है? तब, पुनः वही बात कहनी पड़ेगी कि चाहे जिसकी, चाहे जिस बात की बराबरी न तो करनी चाहिए, न ही वह की जा सकती है। अत्यंत विकट परिस्थिति में रुक्मिणी जी को ऐसा करना पड़ा था। वहाँ कुण्डिनपुर में सभी उनके विरोधी थे। इतना ही नहीं, यहाँ यह भी समझना होगा कि रुक्मिणी जी का श्रीकृष्ण के साथ जो सम्बन्ध है, वह बहुत भिन्न प्रकार का है। यह तो भगवान के साथ सम्बन्ध है, किसी और सामान्य कामी, भोगी, अज्ञानी, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान् जीव के साथ नहीं है। यहाँ तो परम प्रभु परमात्मा का वरण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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