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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
51.उद्धव जी से गोपियों का संवाद
वे कहती हैं- उद्धव जी, सच बात तो यह है कि भगवान के जाने के बाद इस गोकुल में कुछ रहा ही नहीं। फिर एक गोपी भगवान की स्मृति में कुछ इस प्रकार से तन्मय हो गई कि उड़ते हुए एक भौंरे को देखकर, वह उसे श्रीकृष्ण के दूत के रूप में सम्बोधित करते हुए उससे बातें करने लगी। वास्तव में, जो वह भौंरे से कह रही थीं, वह सब उद्धव जी को लक्ष्य करके ही कह रही थीं। दस श्लोकों में वर्णित यह प्रसंग ‘भ्रमर-गीत’ नाम से प्रसिद्ध है। उन श्लोकों में गोपियों ने अपने भावोद्गार प्रकट किए हैं। उद्धवजी ने जब गोपियों ने उन भावों को, उनके प्रेम को देखा और समझा, तो उन्हें अपने ज्ञान का जो अभिमान था, वह जाता रहा, वह दूर हो गया। तब, उन्होंने भगवान का संदेश सुनाकर गोपियों को सान्त्वना दी। उद्धव जी ने कहा कि श्रीकृष्ण ने कहा है, “मैं ही सब की आत्मा हूँ। सब में हूँ, अतः मुझसे तुम्हारा वियोग कभी हो नहीं सकता। तुम्हारे प्रेम को, तुम्हारे भावों को मैं भली प्रकार से जानता हूँ। इसीलिए तुम से दूर रहता हूँ, जिससे कि तुम सब मन से मेरी सन्निधि का अनुभव कर के, मुझे ही प्राप्त हो सको। मैं तुम लोगों से अवश्य मिलूँगा, अतः निराश होने का कोई कारण ही नहीं है। तुम सब का मन जब पूर्णतः मुझमें ही एकाग्र हो जाएगा तब तुम लोग सदा के लिए मुझे प्राप्त हो जाओगी।” भगवान का ऐसा संदेश सुनकर गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ। उनकी विरह व्यथा मिटाने के लिए उद्धव जी कई महीनों तक वहीं व्रज में रहे। श्रीकृष्ण की अनेक लीलाएँ सुना-सुना कर वहाँ सब को आनन्दित किया और व्रज में स्थान-स्थान पर भगवान ने जो लीलाएँ की थीं, उन्हें सुनकर वे स्वयं भी आनन्दित हुए। फिर उन्होंने गोपियों के प्रेम की, उनके भावों की उदार हृदय से प्रशंसा की और अन्त में उद्धव जी ने गोपियों की चरण रज को अपने मस्तक पर धारण किया। उसके बाद नन्दबाबा, यशोदा मैया, तथा गोपबालों से विदा लेकर वे मथुरा लौट आए। जैसा कि हम देख चुके हैं व्रज से मथुरा लौटने पर उद्धव जी भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं, आप बड़े निर्मम हैं। देखो ये वे ही उद्धव जी हैं जो (व्रज में जाने से पूर्व) कहा करते थे कि आप उन्हें इतना क्यों याद करते रहते हैं? अब कहते हैं आप उन्हें उतना याद नहीं करते, जितना कि वे करती हैं। व्रज में जाकर आने से उनके विचारों में इतना परिवर्तन आ गया। उनका स्वभाव बिल्कुल बदल गया। ऐसा लगता था जैसे प्रेम रस उनके हृदय पर छा गया हो, मानो अब वे प्रेम रस में घुल गए हों। वैसे, ये प्रेम की बातें जल्दी-से समझ में नहीं आतीं, परन्तु जब आती है तब हमारे हृदय के आनन्द से भर देती है। अतः हमें तो सिर्फ प्रयत्न करते रहना चाहिये, बस! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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