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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
17.ऊखल-बन्धन-लीला
जो जगत का आदि-अन्त है, जो स्वयं जगत बना है, जिसके आदि, मध्य, अन्त, बाहर भीतर का कोई पता नहीं लग सकता, उसको बाँधना है, और वह भी रस्सी से। बोले, अच्छा, बाँधो। दाम यानी रस्सी, उस से ऊखल के साथ इनको बाँधना है। जब यशोदा जी बाँधने लगती हैं, तो हर बार होता क्या है कि वह रस्सी दो अँगुल कम पड़ जाती है। अच्छा? देखो कैसा आश्चर्य है। वामन अवतार के समय भगवान बहुत बड़े हो गये थे, लेकिन यहाँ न वे बड़े न हुए न छोटे। ज्यों-के-त्यों ही रहे, फिर भी दो अँगुल रस्सी कम पड़ जाती है। कैसी विचित्र बात है। यशोदा मैया दूसरी रस्सी ढूँढ कर लाईं और उसे जोड़ कर रस्सी को लम्बा किया, तब भी वह दो अँगुल कम पड़ रही है। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह लड़का बड़ा नहीं हो रहा है, मोटा नहीं हो रहा है, बढ़ भी नहीं रहा है, कुछ और भी नहीं हो रहा फिर यह रस्सी हर बार कम कैसे पड़ती जा रही है। क्या करें? लेकिन माँ ने कहा कि चाहे जैसे हो आज मैं तुमको बाँध कर ही रहूँगी। अब दोनों में स्पर्धा-सी हो रही है। भगवान ने कहा- मुझे तुम बाँध नहीं सकती। तुमने द्वैत की उपाधि रखी है न, इसलिये रस्सी दो अँगुल कम पड़ती जा रही है। पहले तुम द्वैत को छोड़ो। लेकिन थोड़ी देर बाद जब उन्होंने देखा कि माता बहुत थक गयीं हैं-
तब, कृपा करके भगवान बन्धन में आ गये। अन्यथा भगवान भी क्या कभी बन्धन में आ सकते हैं? क्या उन्हें कोई बाँध सकता है? इसीलिए भक्तों ने कहा-
प्रबल प्रेम के कारण भगवान अपने नियम भी बदल देते हैं। अपना मान भले ही टल जाये, लेकिन भक्त का मान भंग कभी होने नहीं देते। भक्त मुझे बाँधना ही चाहता है, तो चलो ठीक है। मैं बँध जाता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.9.18
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